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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
८. हिन्दू विचारणा आन्तरिक पूर्णता के लिए जिस शीलाचार पर जोर देती है, उसका सक्रिय आचारनीति और अपने पड़ोसी को सहृदय प्रेम देने की बात से विरोध है ।"
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डा० श्वेट्जर का यह प्रथम आक्षेप कि भारतीय चिन्तन जीवन का निषेध सिखाता है, भ्रान्तिपूर्ण है । भारतीय परम्परा जीवन का निषेध नहीं, वरन् जीवन की पूर्णता सिखाती है । डा० राधाकृष्णन् कहते हैं कि हिन्दू मतावलम्बी आध्यात्मिकता को मानव - प्रकृति का आधारभूत तत्त्व मानता है । आत्मिक साक्षात्कार जीवन की समस्याओं का कोई चामत्कारिक समाधान नहीं, अपितु जीवन को अपनी पूर्णता की ओर पहुँचाने का क्रमिक प्रयास है । २ भारतीय परम्परा में, और विशेषकर जैन परम्परा में मोक्ष की जो धारणा स्वीकार की गयी है वह जीवन का निषेध नहीं, वरन् जीवन की पूर्णता है । चेतना की विभिन्न शक्तियों का पूर्ण विकास ही मोक्ष माना गया है । महावीर नैतिकता को जीवन - सापेक्ष मानते हैं । वह तो जीवन जीने की एक कला है, जीवन - प्रक्रिया से भिन्न उसका कोई अर्थ नहीं रहता । महावीर यह स्वीकार करते हैं कि धर्म का आचरण और नैतिक पूर्णता की उपलब्धि तथा तज्जनित आध्यात्मिक आदर्श अर्थात् मोक्ष की उपलब्धि सभी जीवनप्रक्रिया में ही समाहित हैं । महावीर का स्पष्ट निर्देश है कि जबतक वृद्धावस्था शरीर को जर्जरित नहीं करे, व्याधियों से शरीर आक्रान्त न हो, जबतक इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं तभी तक धर्म का आचरण सम्भव है । 3 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जबतक जीवन है, सद्गुणों की आराधना कर लेनी चाहिए । हिन्दू परम्परा में भी महावीर के इसी दृष्टिकोण को समर्थन प्राप्त है । उसमें कहा गया है कि जबतक शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था दूर है, सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापार में संलग्न हैं, जबतक आयुष्य का क्षय नहीं होता तबतक विद्वान् को आत्म - लाभ ( परमश्रेय ) के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए ।" यदि जीवन - साध्य की उपलब्धि जीवन- प्रक्रिया में ही निहित है तो फिर जैन और वैदिक परम्परा के आचारदर्शनों को जीवन का निषेधक कैसे माना जा सकता है। पूर्णता की दिशा में गति जीवन के विकास में है, उसके निषेध में नहीं । जीवन के एक छोर पर अपूर्णता है, सीमितता है; और दूसरे छोर पर पूर्णता और अनन्तता है । जीवन इन दोनों छोरों के मध्य स्थित है । जीवन का काम है इस अपूर्णता से पूर्णता की ओर, ससीम से असीम की ओर बढ़ना । भारतीय परम्परा में जीवन की जिस अपूर्णता को स्वीकार किया गया है वह जीवन का निषेध नहीं है । वस्तुतः जीवन की इस अपूर्णता के बोध में ही पूर्णता के लिए
१. इण्डियन थाट ऐण्ड इट्स डेवलपमेण्ट, उद्धृत - प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार, पृ० ९३. २ . वही, पृ० ९४.
३. दशवैकालिक; ८1३६.
४. उत्तराध्ययन, ४।१३.
५. देखिए -- नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३३६.
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