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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप पाश्चात्य परम्परा समाजपरक । व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास निर्वाणलक्षी भारतीय नैतिकता का प्रमुख ध्येय है, जबकि सामाजिक सन्तुलन, सामाजिक प्रगति और सामाजिक सामञ्जस्य पाश्चात्य नैतिक चिन्तन का प्रमुख साध्य रहा है। यद्यपि थोड़ी गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं कि जहाँ भारत में निर्वाणलक्षी महायान बौद्ध परम्परा समग्र साधना को समाजपरक बना देती है वहीं पश्चिम में स्पिनोजा और नीत्से नैतिकता को व्यक्तिपरक बना देते हैं। अतः इस सम्बन्ध में कोई भी एकांगी दृष्टिकोण भ्रान्तिपूर्ण ही होगा। $ ९. पाश्चात्य विचारकों के भारतीय आचारदर्शन पर आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर पाश्चात्य विचारकों ने भारतीय नैतिक चिन्तन पर कुछ आक्षेप लगाये हैं। डॉ० राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक 'प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार' में श्वेट्जर के द्वारा लगाये गये कुछ आक्षेपों का उल्लेख किया है। यहाँ हम उन्हीं आक्षेपों के सन्दर्भ में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों की दृष्टि से विचार करेंगे। क्योंकि ये आक्षेप न केवल हिन्दू विचारणा पर लागू होते हैं, वरन् जैन और बौद्ध परम्पराओं पर भी लागू होते हैं, इसलिए इनपर विचार अपेक्षित है। डॉ० श्वेट्जर ने भारतीय परम्परा पर निम्न आक्षेप किये हैं १. हिन्दू विचारणा में परमानन्द ( मोक्ष ) पर जो बल दिया जाता है, वह स्वाभाविक तौर पर मनुष्य को संसार और जीवन के निषेध की ओर ले जाता है। २. हिन्दू विचारणा अनिवार्यतः पारलौकिक है और मानवतावादी आचारनीति और पारलौकिकता ये दोनों परस्पर असंगत हैं। ३. 'माया'-सम्बन्धी हिन्दू सिद्धान्त में जीवन को मरीचिका बतलाया गया है। इसमें एक त्रुटि वह है कि यह संसार और जीवन का निषेध करता है। फलतः हिन्दू विचारणा आचारनीतिपरक नहीं है। ४. विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म जो बड़ी से बड़ी बात कह सकता है, वह यह है कि यह भगवान् की लीला है। ५. मोक्ष का साधन ज्ञान या आत्मसाक्षात्कार है। यह बात नैतिक विकास से भिन्न है, इसलिए हिन्दू धर्म नीतिपरक नहीं है । ६. मानव-प्रयासों का लक्ष्य पलायन ( निवृत्ति ) है, समन्वय या समझौता नहीं। यह तो ससीम के बन्धनों से आत्मा की मुक्ति हुई, असीम के आत्मप्रकाश और उसके साधन के रूप में ससीम को परिवर्तित करने की बात इसमें नहीं आयी । धर्म जीवन और उसकी समस्याओं से बचने की एक आड़ है, उससे सुखद भावी जीवन के लिए मनुष्य को कोई आशा नहीं बंधती। ७. हिन्दू धर्म का आदर्श व्यक्ति अच्छाई और बुराई के नैतिक अन्तर से परे होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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