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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
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मानती है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी विज्ञान-प्रवाह या चेतना-प्रवाह बना रहता है।
३. कर्म-सिद्धान्त में विश्वास-कर्म सिद्धान्त भारतीय आचारदर्शन की विशिष्ट मान्यता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन इस कर्मसिद्धान्त में अटूट श्रद्धा रखते हैं । सभी यह स्वीकार करते हैं कि कृत कर्मों का फलभोग आवश्यक है।
४. मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त में आस्था-जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करके चलते हैं । २ कर्मसिद्धान्त और आत्मा की अमरता यह अनिवार्यतः पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित करते हैं।
५. स्वर्ग-नरक के अस्तित्व में विश्वास-पुनर्जन्म के सिद्धान्त की धारणा के साथ यह भी स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार मरणोत्तर अवस्था में स्वर्ग या नरक को प्राप्त करता है ।3 शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप स्वर्ग और अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप नरक की प्राप्ति होती है।
६. जीवन को दुःखमयता-जीवन की दुःखमयता भारतीय दर्शनों का एक प्रमुख प्रत्यय रही है। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में जीवन को दुःखमय माना गया है।४ दुःख की अभिस्वीकृति भारतीय आस्था का प्रथम चरण है। बुद्ध ने इसे प्रथम आर्यसत्य कहा है । वस्तुतः दुःख और अभाव की वेदना जीवन की वह प्यास है जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है । दुःख भारतीय नैतिकता का प्रवेशद्वार है । पाश्चात्य सत्तावादी विचारक किर्केगार्ड ने भी दुःख को नैतिक जीवन का प्रथम चरण कहा है। भारतीय चिन्तन में समग्र नैतिकता इसी दुःख से विमुक्ति का प्रयास कही जा सकती है । बुद्ध और महावीर की प्रवचनधारा जनसमाज को इसी दुःखमयता से उबारने के लिए प्रवाहित हुई। दुःख भारतीय चिन्तन का यथार्थ है और दुःख विमुक्ति आदर्श।
७. निर्वाण : जीवन का परमश्रेय-निर्वाण या मुक्ति भारतीय नैतिकता का परमश्रेय है । दुःख से विमुक्ति को ही नैतिक जीवन का साध्य बताया गया है और दुःखों से पूर्ण विमुक्ति को ही निर्वाण या मोक्ष कहा गया है। भारतीय आचारदर्शनों की दृष्टि में भौतिक एवं वस्तुगत सुख वास्तविक सुख नहीं हैं। सच्चा सुख वस्तुगत नहीं, अपितु आत्मगत है। उसकी उपलब्धि तृष्णा या आसक्ति के प्रहाण द्वारा सम्भव है । वीतराग, अनासक्त और वीततृष्ण होना ही उनकी दृष्टि में वास्तविक सुख है।
१. सूत्रकृतांग २।१।४; गीता, ५।१५; धम्मपद, १२७. २, उत्तराध्ययन, ३३-५, गीता, ८.१मज्झिमनिकाय, १।३।१. ३. सूत्रकृतांग, २।५।१२-२९; गीता, २१३७, १६:१६; अंगुत्तरनिकाय, २।३।७-८ ४. उत्तराध्ययन, १९।१६; धम्मपद, १४६.
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