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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन गोरस, सुकरात, प्लेटो और अरस्तू आदि से लेकर रसल, मूर, पेटन आदि वर्तमान युग के विचारकों तक और पूर्व में वेद और उपनिषद के काल के ऋषिगणों एवं कृष्ण, बुद्ध और महावीर की परम्परा से लेकर तिलक और गांधी के वर्तमान युग तक नैतिक चिन्तन का यह प्रवाह सतत रूप से प्रवाहित होता रहा है, फिर भी देशकालगत परिस्थितियों के कारण नैतिक चिन्तन की यह धारा पूर्व और पश्चिम में कुछ भिन्न रूपों में प्रवाहित होती रही है।
प्रत्येक देश की अपनी भौगोलिक परिस्थिति होती है। जिन देशों में व्यक्ति को अपने जीवनयापन के साधनों की उपलब्धि सहज नहीं होती वहाँ जीवन के उच्च आदर्शों का विकास भी नहीं हो पाता, लेकिन जहाँ जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति सहज एवं सुलभ होती है वहाँ चिन्तन की दिशा भी बदल जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक देश की पूर्ववर्ती परम्पराएँ भी उस देश की चिन्तन की धारा को विशेष दिशा की ओर मोड़ देती हैं। अतः प्रत्येक देश में जीवन के मूल्यों के सम्बन्ध में अपना विशेष दृष्टिकोण होता है। आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन ने हमें यह भी बताया है कि जलवायु भी विचारों को प्रभावित करती है। उसका प्रभाव व्यक्ति की वासनाओं और स्वभावों पर पड़ता है। उसके परिणामस्वरूप भी देश की चिन्तनधारा एक नयी दिशा ले लेती है। मात्र यही नहीं, कभी-कभी देश में कुछ ऐसे प्रबुद्ध व्यक्तित्वों का जन्म हो जाता है जो उस देश के चिन्तन को नया मोड़ दे देते हैं।
भारत की अपनी भौगोलिक परिस्थिति, अपना जलवायु, अपनी पूर्ववर्ती परम्पराएँ और अपने महापुरुष हैं; अतः यह स्पष्ट है कि उसकी नैतिक चिन्तन की अपनी विशेषताएँ हैं । जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन भारतभूमि में विकसित हुए हैं और इस रूप में उनकी कुछ सामान्य अभिस्वीकृतियाँ हैं जो हमें उनके व्यवस्थित और तुलनात्मक अध्ययन के लिए प्रेरित करती हैं। भारतीय नैतिक चिन्तन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
१. जागतिक उपादानों को नश्वरता-भारतीय चिन्तन में जो कुछ भी ऐन्द्रिक अनुभवों के विषय हैं, वे सभी परिवर्तनशील, विनाशशील और अनित्य माने गये हैं । जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराएँ जागतिक उपादानों की इस नश्वरता को स्वीकार करके चलती हैं।
२. आत्मा की अमरता---यद्यपि शरीर, इन्द्रियाँ और उनके विषय नश्वर माने गये हैं, लेकिन आत्मा या जीव को नित्य कहा गया है । जैन दर्शन और गीता दोनों ही आत्मा को नित्य और शाश्वत मानते हैं। दोनों का अनुसार शरीर के नाश हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता। जहाँ तक बौद्ध विचारधारा का प्रश्न है वह नित्य आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करती है, फिर भी वह यह १. भावपाहुड, ११०; गीता, २०१८; धम्मपद, १५१. २. नियमसार, १०२, गीता, २।२०.
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