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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप १५ विस्तारपूर्वक विचार करने पर यह हमारी सत्ता का सारतत्त्व, अक्षय आनन्द की अवस्था और दुःखों से आत्यन्तिक विमुक्ति सिद्ध होता है। भारतीय परम्परा में परमश्रेय, निर्वाण, परमात्मदशा, स्वभावदशा आदि पर्यायवाची शब्द ही माने जाते हैं। परमश्रेय का विवेचन करना या उसे परिभाषित करना सम्भव नहीं है। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में उसे अनिर्वचनीय अर्थात् अविश्लेष्य एवं अपरिभाष्य ही बताया गया है। पाश्चात्य परम्परा में मूर ने भी शुभ को अविश्लेष्य एवं अपरिभाष्य माना है। २. शुभ-भारतीय दृष्टिकोण से शुभ और परमशुभ में अन्तर है। परमशुभ एक आध्यात्मिक आदर्श है जबकि शुभ लौकिक आदर्श । भारतीय परम्परा में इसे पुण्य भी कहा गया है। पुण्य या परोपकार एक ऐसा आदर्श है जिसका लक्ष्य दूसरों का हित करना है । इसे हम सामाजिक जीवन का आदर्श भी कह सकते हैं । ३. औचित्य और अनौचित्य के प्रत्यय-औचित्य और अनौचित्य के प्रत्यय शुभ या परमशुभ के प्रत्यय पर निर्भर हैं। जो आचरण शुभ अथवा परमशृभ की दिशा में ले जाता है वह उचित कहा जाता है। इसके विपरीत जो आचरण शुभ अथवा परमशुभ से विमुख करता है वह अनुचित कहा जाता है । संक्षेप में औचित्य और अनौचित्य का आधार शुभ और परमशुभ के प्रत्यय ही हैं। यद्यपि कुछ लोगों ने उचित और अनुचित को सामाजिक अनुमोदन और अननुमोदन से भी जोड़ने का प्रयास किया है। जिन कर्मों के पीछे सामाजिक अनुमोदन है वे उचित हैं और जिन कर्मों के पीछे सामाजिक अनुमोदन नहीं है वे अनुचित कहे जाते हैं। ४. कर्तव्य-कर्तव्य का प्रत्यय यह बताता है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में किसी विशेष कार्य का करना हमारा दायित्व है। कर्तव्य का उद्भव सामाजिक एवं बौद्धिक जीवन में होता है। कर्तव्य का भाव या तो अधिकारों की धारणा से या बुद्धि से निर्गमित होता है। ५. चारित्र-चरित्र व्यक्ति की आदतों से निर्मित होता है और वह व्यक्ति की जीवनदृष्टि को स्पष्ट करता है। चारित्र, जीवन जीने का एक ढंग-विशेष है। व्यक्ति की जो जीवनदृष्टि होती है वैसा ही उसके जीवन जीने का ढंग होता है और वही उसके चारित्र का परिचायक होता है। चारित्र कर्म करने की स्वेच्छार्जित स्थायी प्रवृत्तियों का संगठित रूप है। नीतिशास्त्र के उपर्युक्त प्रमुख प्रत्यय स्वतन्त्ररूप में नहीं रहकर एक व्यवस्था में रहते हैं। उनमें एक निकटतम पारस्परिक सम्बन्ध भी है। भारतीय परम्परा में निर्वाण परमश्रेय की, पुण्य और पाप शुभाशुभ की, एवं वर्णाश्रमधर्म कर्तव्यभाव की अभिव्यक्ति करते हैं। ६७. भारतीय आचारदर्शनों की सामान्य विशेषताएँ धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ, कुशल-अकुशल, श्रेय-प्रेय और उचित-अनुचित के सम्बन्ध में विचार करने की प्रवृत्ति मानव में प्राचीन काल से ही रही है । पश्चिम में पाइथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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