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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
शास्त्र दर्शन से इस अर्थ में भिन्न है कि दर्शन की कोई पूर्वमान्यता ( postulate ) नहीं होती है जबकि नीतिशास्त्र की कुछ पूर्वमान्यताएं होती हैं। यदि हम नैतिक मान्यताओं की समीक्षा को भी नीतिशास्त्र का अंग मान लेते हैं तो नीतिशास्त्र वस्तुतः 'दर्शन' ही बन जाता है। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि नीतिशास्त्र या आचारदर्शन कोरा बुद्धि विलास नहीं है; उसका सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से है, वह व्यावहारिक दर्शन है ।
जैन नीतिशास्त्र में सम्यग्दर्शन उसके दार्शनिक पक्ष को, सम्यग्ज्ञान उसके वैज्ञानिक पक्ष को और सम्यक्चारित्र उसके कलात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करते हैं। ___ साध्य ( आदर्श ) के निर्देशन एवं नैतिक मान्यताओं की समीक्षा के रूप में नीतिशास्त्र दर्शन है, जबकि आचरण के विश्लेषण के रूप में वह विज्ञान है, और चरित्र निर्माण के रूप में वह कला है । भारतीय आचारशास्त्रीय परम्परा में नैतिक मान्यताओं का तात्त्विक विवेचन, आचरण का विश्लेषण और आचरणमार्ग का निर्देशन सभी समाविष्ट हैं, और इस रूप में उसमें दर्शन, विज्ञान और कला के पक्ष उपस्थित हैं। वस्तुतः भारतीय चिन्तन में हमें नीतिशास्त्र का एक व्यापक स्वरूप दृष्टिगत होता है, उसे सम्पूर्ण जीवन का आधार और लोक स्थिति का व्यवस्थापक माना गया है । उसे धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का मूल और मोक्ष का प्रदाता कहा गया है
___ सर्वोपजीवक लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम् ।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः ॥ -शुक्रनीति, १।२ ६. नैतिक प्रत्यय और उनके अर्थ
पाश्चात्य आचारदर्शन की विभिन्न परिभाषाओं में हमने यह देखा कि वे परिभाषाएं नीतिशास्त्र के किसी प्रत्ययविशेष पर जोर देती हैं। लेकिन नीतिशास्त्र में किसी प्रत्यय विशेष को ही महत्त्व देना एकांगी दृष्टिकोण होगा । यद्यपि नीतिशास्त्र के विभिन्न प्रत्ययों में एक क्रम या व्यवस्था हो सकती है, तथापि किसी भी प्रत्यय को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र के प्रमुख प्रत्यय परम शुभ, शुभ, उचित, कर्तव्य, चारित्र आदि हैं । भारतीय आचारदर्शनों में यद्यपि उपर्युक्त सभी नैतिक प्रत्यय उपस्थित हैं, तथापि भारतीय परम्परा में उनकी परिभाषाएं अनुपलब्ध हैं। इस सन्दर्भ में हमें पाश्चात्य दृष्टिकोण का ही सहारा लेना होगा, फिर भी हम उन्हें भारतीय सन्दर्भ में ही परखने का प्रयास करेंगे।
१. परमशुभ-भारतीय परम्परा में जीवन का परमश्रेय दुःखों का आत्यन्तिक विनाश और अक्षय आनन्द की उपलब्धि है। एक अन्य अपेक्षा से आत्मपूर्णता को भी जीवन का परमश्रेय माना गया है। तात्त्विक दृष्टि से परमश्रेय हमारी सत्ता का सारतत्त्व है, उसे जैन परम्परा में स्वभावदशा की उपलब्धि और गीता में परमात्मा की उपलब्धि कहा गया है। संक्षेप में इसे निर्वाण कहा जाता है और
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