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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप जाता है। (२) कला का सम्बन्ध निर्मिति की सिद्धि से है, जबकि आचरण का सम्बन्ध आन्तरिक उद्देश्य से है। दूसरे शब्दों में, कला का सम्बन्ध साध्य की उपलब्धि से है जबकि आचरण का सम्बन्ध साधन की शुद्धि या सद्भावना से है ।
भारतीय परम्परा की दृष्टि से मैकेंजी का यह दृष्टिकोण समुचित नहीं है । जैन परम्परा और गीता के अनुसार, जिसका दृष्टिकोण अथवा जिसकी श्रद्धा सम्यक् है वह सदाचरण की क्रिया के अभाव में भी सदाचारी माना गया है। जैन परम्परा के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि अशुभाचरण से विरत नहीं होता है फिर भी आचरांगसूत्र में यह कहकर कि सम्यग्दृष्टी कोई पाप नहीं करता है,' क्षमता के आधार पर उसे नैतिक व्यक्ति मान लिया गया है । गीता में यह कहकर कि भगवान् के प्रति सम्यक् श्रद्धा से युक्त दुराचारी को भी सदाचारी ही मानना चाहिए,२ इसी बात को स्पष्ट किया गया है कि नैतिक आचरण की क्षमता से युक्त होने पर आचरण के अभाव में भी किसी को सदाचारी माना जा सकता है । दूसरे यह मानना कि नीतिशास्त्र केवल साधन-शुद्धि और सद्-उद्देश्य पर बल देता है, समुचित नहीं है । भारतीय परम्परा में नैतिक जीवन का परमलक्ष्य मात्र साधन की शुद्धि या सद्उद्देश्यता नहीं है, वरन् मोक्ष के साध्य की सिद्धि भी है । भारतीय परम्परा में नीतिशास्त्र को योगशास्त्र भी कहा गया है, और योग वही है जो 'साध्य' से जोड़ता है । गीता में योग को 'कर्मकौशल्य' भी कहा गया है और इस रूप में नीतिशास्त्र प्रवीणता पर उसी प्रकार बल देता है जिस प्रकार कला । भारतीय परम्परा में नीतिशास्त्र आचरण की कलाओं में महत्त्वपूर्ण कला है । कहा गया है
सकलापि कला कलावतां विकलां पुण्य कलां विना खलु ।
सकले नयने वृथा यथा तनु भाजां हि कनीनिका विना ॥ भारतीय चिन्तन में आचारशास्त्र पुण्य कला है, और पुण्य कला के अभाव में सभी कलाएं वैसे ही व्यर्थ हैं जिस प्रकार कनीनिका के बिना नयन व्यर्थ है। जैनाचार्यों का कथन है, 'सव्वकला धम्मकला जिणेइ' ( गौतमकुलक ) अर्थात् धर्मकला सभी कलाओं में श्रेष्ठ है। २. नीतिशास्त्र की दार्शनिक प्रकृति
आचारशास्त्र न केवल विज्ञान या कला है, वरन् वह दर्शन का अंग भी है। यदि विज्ञान का अर्थ मानवीय अनुभव के किसी सीमित भाग का अध्ययन है तो नीतिशास्त्र विज्ञान की अपेक्षा दर्शन ही अधिक है। इस अर्थ में उसे दर्शन का एक अंग ही मानना चाहिए क्योंकि वह अनुभूति का पूर्ण रूप से अध्ययन करता है। भैकेंजी ने स्वयं इसे इस अर्थ में दर्शन का अंग माना है। कुछ विचारकों की दृष्टि में विज्ञान का सम्बन्ध यथार्थ से होता है। यदि विज्ञान यथार्थमूलक शास्त्रों तक सीमित है तो हमें नीतिशास्त्र को 'दर्शन' के क्षेत्र में रखना होगा। यद्यपि नीति१. आचारांग, १।३।२. २. गीता, ९।३०. For Private & Personal Use Only
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