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मनोवृत्तियाँ ( कषाय एवं लेश्थाए)
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पर तो दो ही भेद होते हैं, शेष वर्गीकरण मात्रात्मक ही हैं और इस प्रकार यदि मूल आधारों की ओर दृष्टि रखें तो जैन और गीता की विचारणा को अतिनिकट ही पाते हैं । जहाँ तक जैन दर्शन की धर्म और अधर्म लेश्याओं में और गीता की देवी और आसुरी सम्पदा में प्राणी की मनःस्थिति एवं आचरण का जो चित्रण किया है, उसमें बहुत कुछ शब्द एवं भाव साम्य है ।
धर्म लेश्याओं में प्राणी की मनःस्थिति एवं चरित्र (उत्तराध्ययन के आधार पर ' ) जैन दृष्टिकोण
१. प्रशांत चित्त
२. ज्ञान, ध्यान और तप में रत
३. इन्द्रियों को वश में रखने वाला ४. स्वाध्यायी
५. हितैषी
६. क्रोध की न्यूनता
७. मान, माया और लोभ का त्यागी ८. अल्पभाषी
९. इन्द्रिय और मन पर अधिकार रखने
वाला
१०. तेजस्वी ११. दृढधर्मी
१२. नम्र एवं विनीत
१३. चपलतारहित तथा शांत
१४. पापभीरु
१. उत्तराध्ययन ३४।२७-३२
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देवी सम्पदा से युक्त प्राणी की मनःस्थिति एवं चरित्र गीता का दृष्टिकोण
शांतचित्त एवं स्वच्छ अन्तःकरण वाला तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान में निरन्तर दृढ़ स्थिति
इन्द्रियों का दमन करने वाला
स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने
वाला
अहिंसायुक्त, दयाशील तथा अभय
अक्रोधी, क्षमाशील
त्यागी
अपिशुनी तथा सत्यशील
अलोलुप (इन्द्रिय विषयों में अनासक्त )
तेजस्वी
धैर्यवान्
कोमल
चपलतारहित (अचपल )
लोक और शास्त्र - विरुद्ध आचरण में लज्जा
२. गीता, १६।१-३
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