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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
बांटा गया ।" जैनागम उत्तराध्ययन में भी लेश्याओं को प्रशस्त और अप्रशस्त इन दो भागों में बाँटकर प्रत्येक के तीन विभाग किये गये हैं । बौद्ध विचारणा ने शुभाशुभ कर्म एवं मनोभाव के आधार पर छह वर्ग तो मान लिये लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने एक वर्ग उन लोगों का भी माना जो शुभाशुभ से ऊपर उठ गये हैं और इसे अकृष्ण - शुक्ल कहा । वैसे जैन दर्शन में भी अर्हत् को अलेशी कहा गया है ।
लेश्या - सिद्धान्त और गीता - गीता में भी प्राणियों के गुण-कर्म के अनुसार वर्गीकरण की धारणा मिलती है । गीता न केवल सामाजिक दृष्टि से प्राणियों का गुण-कर्म के अनुसार वर्गीकरण करती है, वरन् वह नैतिक आचरण की दृष्टि से भी वर्गीकरण प्रस्तुत करती है । गीता के १६ वें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैवी ऐसी दो प्रकार की प्रकृति बतलायी गई है और इसी आधार पर प्राणियों के दो विभाग किये गये हैं । गीता का कथन है कि प्राणियों या मनुष्यों की प्रकृति दो ही प्रकार की होती है या तो देवी या आसुरी । उसमें भी दैवीगुण मोक्ष के हेतु हैं, और आसुरीगुण बन्धन के हेतु हेतु हैं । यद्यपि गीता में हमें द्विविध वर्ग करण ही मिलता है, लेकिन इसका तात्पर्य यही है कि मूलतः दो ही प्रकार होते हैं, जिन्हें हम चाहे देवी और आसुरी प्रकृति कहें, चाहे कृष्ण और शुक्ल लेश्या कहें या कृष्ण और शुक्ल अभिजाति कहें। जैन- विचारणा के विवेचन में भी दो ही मूल प्रकार हैं । प्रथम तीन कृष्ण, नील और कापोत लेश्या को अविशुद्ध, अप्रशस्त और संक्लिष्ट कहा गया है और अन्तिम तीन तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या को विशुद्ध, प्रशस्त और असंक्लिष्ट कहो गया है । " उत्तराध्ययन सूत्र स्पष्ट कहा है कि कृष्ण, नील एवं कापोत अधर्म लेश्याएँ हैं और इनके कारण जीव दुर्गति में जाता है और तेजो, पदम एवं शुक्ल धर्म- लेश्याएँ हैं और इनके कारण जीव सुगति में जाता है । पं० सुखलालजी लिखते हैं कि कृष्ण और शुक्ल के बीच की लेश्याएँ विचारगत अशुभता और शुभता का विविध मिश्रण मात्र हैं । जैन दृष्टि के अनुसार धर्म - लेश्याएँ या प्रशस्त लेश्याएँ मोक्ष का हेतु तो होती हैं एवं जीवन्मुक्त अवस्था तक विद्यमान भी रहती हैं । लेकिन विदेह - मुक्ति उसी अवस्था में होती है जब प्राणी इनसे भी ऊपर उठ जाता है । इसीलिए यहाँ यह कहा गया है कि धर्म-लेश्याएँ सुगति का कारण हैं ।
जैन- विचारणा विवेचना के क्षेत्र में विश्लेषणात्मक अधिक रही है । अतएव वर्गीकरण करने की स्थिति में भी उसने काफी गहराई तक जाने की कोशिश की और इसी आधार पर यह षट्वध विवेचन किया। लेकिन तथ्य यह है कि गुणात्मक अन्तर के आधार
२. गीता, १६।६
१. अंगुत्तरनिकाय, ६।५७ ३. अभिधान राजेन्द्र खण्ड ६, पृ० ६. दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० ११२
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५. उत्तराध्ययन,
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३. वही, १६।५ ३४१५६-५७
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