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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सम्पादन में
४. तेजोलेश्या ( शुभ मनोवृत्ति ) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - यहाँ मनोदशा पवित्र होती है । इस मनोभूमि में प्राणी पापभीरु होता है अर्थात् वह अनैतिक आचरण की ओर प्रवृत्त नहीं होता । यद्यपि वह सुखापेक्षी होता है, लेकिन किसी अनैतिक आचरण द्वारा उन सुखों की प्राप्ति या अपना स्वार्थ साधन नहीं करता । धार्मिक एवं नैतिक आचरण में उसकी पूर्ण आस्था होती है । अतः उन कृत्यों के आनन्द प्राप्त करता है, जो धार्मिक या नैतिक दृष्टि से शुभ हैं । इस मनोभूमि में दूसरे के कल्याण की भावना भी होती है । संक्षेप में इस मनोभूमि में स्थित प्राणी पवित्र आचरणवाला, नम्र, धैर्यवान्, निष्कपट, आकांक्षारहित, विनीत, संयमी एवं योगी होता है ।" वह प्रिय एवं दृढ़धर्मी तथा पर-हितैषी होता है । इस मनोभूमि पर दूसरे का अहित तो सम्भव होता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में जबकि दूसरा उसके हितों का हनन करने पर उतारू हो जाये ।
५. पद्म - लेश्या (शुभतर मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - इस मनोभूमि में पवित्रता की मात्रा पिछली भूमिका की अपेक्षा अधिक होती है । इस मनोभूमि में क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप अशुभ मनोवृत्तियां अतीव अल्प अर्थात् समाप्तप्राय हो जाती हैं । प्राणी संयमी तथा योगी होता है तथा योग-साधना के फलस्वरूप आत्मजयी एवं प्रफुल्लचित्त होता है । वह अल्पभाषी, उपशांत एवं जितेन्द्रिय होता है ।
६. शुक्ल - लेश्या (परमशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - यह मनोभूमि शुभ मनोवृत्ति की सर्वोच्च भूमिका है । पिछली मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में वर्तमान रहते हैं, लेकिन उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है । प्राणी उपशांत, जितेन्द्रिय एवं प्रसन्नचित्त होता है । उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि वह अपने हित के लिए दूसरे को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता है, मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है तथा उन पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है । उसे मात्र अपने आदर्श का बोध रहता है । बिना किसी अपेक्षा के वह मात्र स्वकर्तव्य के परिपालन में सदैव जागरूक रहता है । सदैव स्वधर्म एवं स्वस्वरूप में निमग्न रहता है |
लेश्या - सिद्धान्त और बौद्ध-विचारणा- भारत में गुण-कर्म के आधार पर यह वर्गी - करण करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती है । यह वर्गीकरण सामाजिक एवं नैतिक दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता रहा है । सामाजिक दृष्टि से इसने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का रूप ग्रहण किया था जिस पर जन्मना और कर्मणा दृष्टिकोणों को लेकर श्रमण और वैदिक परम्परा में काफी विवाद भी रहा है । यहाँ हम इस गुण-कर्म के आधार पर विशुद्ध नैतिक दृष्टिकोण के वर्गीकरण की ही चर्चा करेंगे । नैतिक
२. वही, ३४।२९ - ३०
१. उत्तराध्ययन, ३४।२७-२८ ३. वही, ३४।३१-३२
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