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________________ ५१४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन | मनोभाव अथवा संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं हैं, वरन् वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं । वस्तुतः संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होते है । ब्रेडले का यह कथन उचित है कि कर्म संकल्प का रूपान्तरण है ।' मनोभूमि या संकल्प व्यक्ति के आचरण का प्रेरक सूत्र है, लेकिन कर्म क्षेत्र में संकल्प और आचरण दो अलग-अलग तत्त्व नहीं रहते । आचरण से संकल्पों की मनोभूमिका का निर्माण होता है और संकल्पों की मनोभूमिका पर ही आचरण स्थित होता है । मनोभूमि और आचरण अथवा चरित्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, मनोवृत्ति स्वयं में भी एक आचरण है । मानसिक कर्म भी कर्म ही अतः जैन- विचारकों ने जब लेश्या - परिणाम की चर्चा की, तो वे मात्र मनोदशाओं की चर्चाओं तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने उस मनोदशा से प्रत्युत्पन्न जीवन के कर्म-क्षेत्र में घटित होनेवाले व्यवहारों की चर्चा भी की और इस प्रकार जैन लेश्या - सिद्धान्त व्यक्तित्व के नैतिक पक्ष के आधार पर व्यक्तित्व के नैतिक प्रकारों के वर्गीकरण का ही सिद्धान्त बन गया। जैन-विचारकों ने इस सिद्धान्त के आधार पर यह बताया कि नैतिक दृष्टि से व्यक्तित्व या तो नैतिक होगा या अनैतिक होगा और इस प्रकार दो वर्ग होंगे - १. नैतिक और २ अनैतिक 'इन्हें धार्मिक और अधार्मिक अथवा शुक्ल-पक्षी और कृष्ण पक्षी भी कहा गया है । वस्तुतः एक वर्ग वह है जो नैतिकता अथवा शुभ की ओर उन्मुख है । दूसरा वर्ग वह है जो अनैतिकता या अशुभ की ओर उन्मुख है । इस प्रकार नैतिक गुणात्मक अन्तर के आधार पर व्यक्तित्व के ये दो प्रकार बनते हैं । लेकिन जैन- विचारक मात्र गुणात्मक वर्गीकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मक अन्तरों (जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट ) के आधार पर छह भागों में विभाजित किया । जैन लेश्या - सिद्धान्त का षट्विध वर्गीकरण इसी आधार पर हुआ है । यद्यपि जैन-विचारकों ने मात्रात्मक अन्तरों के आधार पर इस वर्गीकरण में तीन, नव, इक्यासी और दो सौ तैंतालीस उपभेद भी गिनायें हैं, लेकिन हम अपने को नैतिक व्यक्तित्व के इस षविध वर्गीकरण तक ही सीमित रखेंगे । कृष्ण-लेश्या ( अशुभतम मनोभाव ) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण - यह नैतिक व्यक्तित्व का सबसे निकृष्ट रूप है । इस अवस्था में प्राणी के विचार अत्यन्त निम्न कोटि के एवं क्रूर होते हैं । वासनात्मक पक्ष जीवन के सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र पर हावी रहता हैं । प्राणी अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने में अक्षम रहता है । वह अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न रख पाने के कारण बिना किसी प्रकार के शुभाशुभ विचार के उन इन्द्रिय-विषयों की पूर्ति में सदैव निमग्न बना रहता है । इस प्रकार भोग-विलास में आसक्त हो, वह उनकी पूर्ति के लिए हिंसा, असत्य, १. एथिकल स्टडीज, पृ० ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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