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________________ मनोवृत्तियां (कवाप एवं लेश्याएं) ५११ अपहरण हो गया है, ऐसे आसुरी स्वभाव से युक्त, दूषित कर्मों का आचरण करनेवाले, मनुष्यों में नीच, मूर्ख मुझ परमात्मा को प्राप्त नहीं होते। ___ सारांश यह कि मनोवृत्तियों के चारों रूप, जिन्हें जैन विचारणा कषाय कहती है, गीता में भी निकृष्ट माने गये हैं और नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए इनका परित्याग करना आवश्यक है । गीताकार की दृष्टि में जो मनुष्य इस शरीर के नाश होने के पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न आवेगों (संवेगों) को सहन करने में समर्थ है अर्थात् जो काम एवं क्रोध की भावनाओं से ऊपर उठ गया है, वही योगी है और वही सुखी है। काम-क्रोधादि (कषाय-वृत्तियों) से रहित, विजित-चित्त एवं विकाररहित आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला ज्ञानी पुरुष सभी ओर से ब्रह्म-निर्वाण में ही निवास करता है अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाता है। - इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में भी जैनदर्शन के समान क्रोध (आवेश), मान (अहंकार), माया (छिपाने की वृत्ति) और लोभ (संग्रह-वृत्ति) आदि आवेगों को वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास एवं सामाजिक सम्बन्धों को शुद्धि की दृष्टि से अनुचित माना गया है । यदि व्यक्ति इन आवेगात्मक मनोवृत्तियों को अपने जीवन में स्थान देता है तो एक ओर वैयक्तिक दृष्टि से वह अपने आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करता है और यथार्थ बोध से वंचित रहता है, दूसरी ओर उसकी इन वत्तियों के परिणाम सामाजिक जीवन में संक्रान्त होकर क्रमशः संघर्ष (युद्ध), शोषण, घृणा (ऊँच-नीच का भाव) और अविश्वास को उत्पन्न करते हैं और परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन-व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाती है । अतः वैयक्तिक-आध्यात्मिक विकास और सामञ्जस्यपूर्ण सामाजिक जीवन प्रणाली के लिए आवेगात्मक मनोवृत्तियों का त्याग आवश्यक है और इनके स्थान पर इनकी प्रतिपक्षी शान्ति, समानता, सरलता (विश्वसनीयता) और विसर्जन (त्याग) की मनोवृत्तियों को जीवन में स्थान देना चाहिए ताकि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन का विकास हो सके । व्यक्ति जैसे-जैसे इन आवेगात्मक मनोवृत्तियों से ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे उसका व्यक्तित्व परिपक्व बनता जाता है और जब इन आवेगात्मक मनोभावों से पूर्णतया ऊपर उठ जाता है, तब वीतराग, अर्हत् या जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जो कि नैतिक जीवन का साध्य है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इसे परिपक्व व्यक्तित्व (MATURED PERSONALITY) की अवस्था कहा जा सकता है । आवेग, नैतिकता एवं व्यक्तित्व-हमारे व्यक्तित्व का सीधा सम्बन्ध हमारे आवेगों से है। आवेगों की जितनी अधिक तीव्रता होगी, व्यक्तित्व में उतनी ही अधिक अस्थिरता १. गीता, ७।१५ २. वही, ५।२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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