________________
५१०
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
उत्पन्न होकर नष्ट कर देते हैं जैसे केले के पेड़ को उसी का फल (केला)'। मायावी मर कर नरक में उत्पन्न हो दुर्गति को प्राप्त होता है। सुत्तनिपात में कहा गया है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का अभिमान करता है और अपने बन्धुओं का अपमान करता है, वह उसके पराभव का कारण है । जो क्रोध करता है, वैरी है तथा जो मायावी है उसे वृषल (नीच) जानो। इस प्रकार बौद्ध दर्शन इन अशुभ-चित्त वृत्तियों का निषेध कर साधक को इनसे ऊपर उठने का संदेश देता है । - गीता और कषाय-निरोध-यद्यपि गीता में कषायों का ऐसा चतुर्विध वर्गीकरण तो नहीं मिलता, तथापि कषायों के रूप में जिन अशुभ मनोवृत्तियों का चित्रण जैनागमों में है, उन सभी अशुभ मनोवृत्तियों का उल्लेख गीता में भी है । हिन्दू आचार-दर्शन में कषाय शब्द का अशुभ मनो वृत्तियों के अर्थ में प्रयोग विरल ही हुआ है। छान्दोग्यउपनिषद् में कषाय शब्द राग-द्वेष के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । महाभारत के शान्तिपर्व में भी कषाय शब्द का प्रयोग अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में हुआ है । वहाँ कहा गया है कि मनुष्य-जीवन की तीन सीढ़ियों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ-आश्रम में कषायों को विजित कर फिर संन्यास का अनुसरण करें । गीता में कषाय शब्द का प्रयोग नहीं है। फिर भी गीता में कषाय-वृत्तियों का विवेचन है। गीता कहती है कि 'दम्भ, दर्प, मान, क्रोध आदि आसुरी सम्पदा हैं । अहंकार, बल, दर्प (मान), काम (लोभ) और क्रोध के आश्रित होकर मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में स्थित परमात्मा (आत्मा) से द्वष करनेवाले होते हैं. अर्थात मान, क्रोध, लोभ आदि विकारों के वशीभूत होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाते हैं । यह काम, क्रोध और लोभ आत्मा का नाश करनेवाले (आत्मा को विकारी बनाकर उसके स्व-लक्षणों को आवरित करनेवाले) नरक के द्वार हैं । अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए । जो इन नरक के द्वारों से मुक्त होकर अपने कल्याण-मार्ग का आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है।
इस प्रकार क्रोध, मान और लोभ इन तीन कषायों का विवेचन हमें गीता में मिल जाता है । गीता में माया शब्द का प्रयोग तो हुआ है, लेकिन जिस निम्नस्तरीय कपटवत्ति के अर्थ में जैन दर्शन में उसका प्रयोग किया गया है, उस अर्थ में उसका प्रयोग नहीं हुआ है । वहाँ तो वह दैवी माया (७।१४) है, फिर भी वह नैतिक विकास में बाधक अवश्य मानी गयी है । गीता में कृष्ण कहते हैं कि माया के द्वारा जिनके ज्ञान का
१. संयुत्तनिकाय, ३।३।३ २. वही, ४०।१३।
१ ३. सुत्तनिपात, ७।१ ४. वही, ६।१४ ५. छान्दोग्य उपनिषद्, ७।२६।२ ६. महाभारत शांतिपर्व, २४४।३ ७. गीता, १६।४ ८. वही, १६।१८ ९. वही, १६।२१-२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org