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________________ मनोवृत्तियाँ ( कषाय एवं लेश्याएँ) ५०९ अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीते तथा कृपणता को दान से और मिथ्या भाषण को सत्य से पराजित करे। महाभारत में भी लगभग इन्हीं शब्दों में इन वृत्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करने का निर्देश है । महाभारत और धम्मपद का यह शब्द - साम्य और दशर्वकालिक एवं धम्मपद का यह विचार-साम्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है । वस्तुतः कषाय ही आत्म-विकास में बाधक है । कषायों का नष्ट हो जाना ही भवभ्रमण का अंत है । एक जैनाचार्य का कथन है, 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव' - कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि साधक को हमेशा यही विचार करना चाहिए कि मैं न तो क्रोध हूँ, न मान, न माया, न लोभ ही हूँ अर्थात् ये मेरी आत्मा के गुण नहीं हैं । अतएव मैं न तो इनका कर्ता हूँ, न करवाता हूँ, और न करने वालों का अनुमोदन ( समर्थन ) करता हूँ | 3 इस प्रकार कषायों को विकृति समझकर साधक शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए इनसे दूर हो कर शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इन चारों दोषों का त्याग कर देने वाला पाप नहीं करता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार महादोषों को छोड़ देने वाला महर्षि न तो पाप करता है, न तो करवाता है । कषाय-जय से जीवन्मुक्ति को प्राप्त कर वह निष्काम जीवन जीता है । बौद्ध दर्शन और कषाय-जय - धम्मपद में कषाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है । एक तो उसका जैन - परम्परा के समान दूषित चित्तवृति के अर्थ में प्रयोग हुआ है और दूसरे संन्यस्त जीवन के प्रतीक गेरुए वस्त्रों के अर्थ में । तथागत कहते हैं - 'जो व्यक्ति ( रागद्वेषादि) कषायों को छोड़े बिना काषाय वस्त्रों (गेरूए कपड़ों) को अर्थात् संन्यास धारण करता है वह संयम के यथार्थ स्वरूप से पतित व्यक्ति काषाय- वस्त्रों (संन्यास मार्ग) का अधिकारी नहीं है। लेकिन जिसने कषायों (दूषित चित्तवृत्तियों) को वमित कर दिया ( तज दिया) है, वह संयम के यथार्थ स्वरूप से युक्त व्यक्ति काषाय - वस्त्रों (संन्यास मार्ग) का अधिकारी है' 14 बोद्ध-विचार में कषाय शब्द के अन्तर्गत कौन-कौन दूषित वृत्तियाँ आती हैं, इसका स्पष्ट उल्लेख हमें नहीं मिला। क्रोध, मान, माया और लोभ को बौद्धविचारणा में दूषित चित्त वृत्ति के रूप में ही माना गया है और नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए उनके परित्याग का निर्देश है । बुद्ध कहते हैं कि क्रोध को छोड़ दो और अभिमान का त्याग कर दो; समस्त संयोजनों को तोड़ दो, जो पुरुष नाम तथा रूप में आसक्त नहीं होता, ( लोभ नहीं करता), जो अकिंचन है, उस पर क्लेशों का आक्रमण नहीं होता । जो उठते हुए क्रोध को उसी तरह निग्रहित कर लेता है, जैसे सारथी घोड़े को ; नही सच्चा सारथी है (नैतिक जीवन का सच्चा साधक है), शेष सब तो मात्र लगाम पकड़ने वाले हैं । भिक्षुओ ! लोभ, द्वेष और मोह पापचित्त वाले मनुष्य को अपने भीतर ही १. धम्मपद, २२३ २. महाभारत, उद्योग पर्व - उद्धृत धम्मपद भूमिका ३. नियमसार, ८१ ४. सूत्रकृतांग, १।६।२६ ५. धम्मपद, ९-१० ६. वही, २२१-२२२ ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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