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________________ ५०३ मनोवृत्तियां (कषाय एवं लेश्याएं) का खण्डन करना, १५. सातियोग-उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना । यह सब माया की हो विभिन्न अवस्थाएँ हैं । माया के चार प्रकार-१. अनंतानुबन्धी माया (तीव्रतम कपटाचार)-अतीव कुटिल जैसे बांस की जड़, २. अप्रत्याख्यानी माया (तीव्रतर कपटाचार)-भैंस के सींग के समान कुटिल, ३. प्रत्याख्यानी माया (तीव्र कपटाचार)-गोमूत्र की धारा के समान कुटिल, ४. संज्वलन माया (अल्प-कपटाचार)-बांस के छिलके के समान कुटिल । लोभ __ मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएँ है'-१. लोभ-संग्रह करने की वृत्ति, २. इच्छा-अभिलाषा, ३. मूर्छा-तीव्र संग्रह-वृत्ति, ४. कांक्षा-प्राप्त करने की आशा, ५. गुद्धि-आसक्ति ६. तृष्णा-जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति, ७. मिथ्या--विषयों का ध्यान, ८. अभिध्या-निश्चय से डिग जाना या चंचलता, ९. आशंसना-इष्ट-प्राप्ति की इच्छा करना, १०. प्रार्थना-अर्थ आदि की याचना, ११. लालपनता-चाटुकारिता, १२. कामाशा--काम की इच्छा, १३. भोगाशाभोग्य-पदार्थों की इच्छा, १४. जीविताशा--जीवन की कामना, १५. मरणाशामरने की कामना, १६. नन्दिराग--प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग ।। लोभ के चार भेद-१. अनंतानुबन्धी लोभ-मजीठिया रंग के समान जो छूटे नहीं, अर्थात् अत्यधिक लोभ । २. अप्रत्याख्यानो लोभ-गाड़ी के पहिये के औगन के समान मुश्किल से छूटने वाला लोभ । ३. प्रत्याख्यानो लोभ-कीचड़ के समान प्रयत्न करने पर छूट जाने वाला लोभ । ४. संज्वलन लोभ--हल्दी के लेप के समान शीघ्रता से दूर हो जानेवाला लोभ । नोकषाय-नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है नोकषाय । जैन-दार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ इन प्रधान कषायों के सहचारी भावों अथवा उनकी सहयोगी मनोवृत्तियाँ जैन परिभाषा में नोकषाय कही जाती हैं । जहाँ पाश्चात्य मनोविज्ञान में काम-वासना को प्रमुख मूलवृत्ति तथा भय को प्रमुख आवेग माना गया है, वहाँ जैन-दर्शन में उन्हें सहचारी कषाय या उप-आवेग कहा गया है । इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ पाश्चात्य विचारकों ने उन पर मात्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन विचारणा में जो मानसिक तथ्य नैतिक दृष्टि से अधिक अशुभ थे, उन्हें कषाय कहा गया है और उनके सहचारी अथवा कारक मनोभाव को नोकषाय कहा गया है । यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियाँ हैं, जिनसे कषायें उत्पन्न होती हैं, १. भगवतीसूत्र, १५।५।५ २. तुलना कीजिए-जीवनवृत्ति और मृत्युवृत्ति (फ्रायड) ३-४. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ४, पृ० २१६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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