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________________ ५०२ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं-१. जाति, २. कुल, ३. बल (शक्ति), ४. ऐश्वर्य, ५. बुद्धि (सामान्य बुद्धि,) ५. ज्ञान (सूत्रों का ज्ञान) ७. सौन्दर्य और .८. अधिकार (प्रभुता)। इन आठ प्रकार की श्रेष्ठताओं का अहंकार करना गृहस्थ एवं साधु दोनों के लिए सर्वथा वर्जित है। इन्हें मद भी कहा गया है। मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है' : मान-अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, २. मद-अहंभाव में तन्मयता, ३. दर्प-उत्तेजना पूर्ण अहंभाव, ४. स्तम्भ--अविनम्रता ५. गर्व-अहंकार, ६. अत्युक्रोश-अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, ७. परपरिवादपरनिन्दा, ८. उत्कर्ष-अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, ९. अपकर्ष-दूसरों को तुच्छ समझना, १०. उन्नतनाम-गुणी के सामने भी न झुकना, ११. उन्नत-दूसरों को तुच्छ समझना, १२. पुर्नाम-यथोचित रूप से न झुकना। अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं १. अनंतानुबन्धी मान-पत्थर के खम्बे के समान ओ झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनम्रता नाममात्र को भी नहीं है। २. अप्रत्याख्यानी मान-हडडी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात् जो . विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है। ३. प्रत्याख्यानो मान-लकड़ी के समान थोड़े से प्रयत्न से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके अन्तर में विनम्रता तो होती है लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता ४. संज्वलन मान-बेत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। माया कपटाचार माया कषाय है। भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं ।२-१. मायाकपटाचार, २. उपाधि--ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, ३. निकृति-ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, ४. वलय-वक्रतापूर्ण वचन, ५. गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, ६. नूम---- ठगने के हेतु निकृष्टकार्य करना, ७, कल्क-दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, ८. करूप-निन्दित व्यवहार करना, ९. निलता-ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, १०. किल्विधिक-भांडों के समान कुचेष्टा करना, ११. आदरणता-अनिच्छित कार्य भी अपनाना, १२. गृहनता-अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, १३. वंचकता-ठगी, १४. प्रति-कुंचनता-किसी के सरल रूप से कहे गये वचनों १. भगवती सूत्र, १२।४३ २. वही, १२१५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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