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________________ ४९४ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन-दर्शन में मन की चार अवस्थाएं-जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में मन नैतिक जीवन की आधारभूमि है, अतः चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर व्यक्ति के नैतिक विकास को आंका जा सकता है। आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाएँ मानी है--१. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन और, ४. सुलीन मन ।' १. विक्षिप्त मन-यह चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, इसका आलम्बन प्रमुखतया बाह्य विषय होता है । यह मन की अस्थिर अवस्था है । इसमें संकल्प-विकल्प या विचारों की भाग-दौड़ मची रहती है, अतः इस अवस्था में मानसिक शान्ति का अभाव होता है । यह चित्त पूरी तरह बहिर्मुखी होता है। २. यातायात मन-यातायात मन कभी बाह्य विषयों की ओर जाता है तो कभी अन्दर स्थित होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास के प्रारम्भ की अवस्था है । इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े बहुत प्रयत्न से उसे स्थित कर लिया जाता है । कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुनः बाह्य विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता है तब मानसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है । यातायात चित्त कथंचित् अन्तर्मुखी और कथंचित् बहिर्मुखी होता है। ३. श्लिष्टमन-यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन प्रशस्त विषय होता है। इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है । ४. सुलोन मन--यह मन की वह अवस्था है, जिसमें संकल्प-विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इसे मन की निरुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द की अवस्था है, क्योंकि इसमें सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। बौद्ध-दर्शन में चित्त को चार अवस्थाएं-अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार बौद्धदर्शन में भी चित्त चार प्रकार का है--१. कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावचर और ४. लोकोत्तर । १. कामावचर चित्त-यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों की अधिकता होती है। मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है । २. रूपावचर चित्त - इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है । चित्त का आलम्बन बाह्य स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक अवस्था है । १. योगशास्त्र, १२।२ २. अभिधम्मत्थसंगहो, पृ० १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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