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________________ मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान ४९३ प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए। क्योंकि बलात् रोकने से वह उस ओर और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त हो जाता है । जैसे मदोन्मत्त हाथो को रोका जाए तो वह उस ओर अधिक प्रेरित होता है और उसे न रोका जाये तो वह अपने इष्ट विषयों को प्राप्त करके शान्त हो जाता है । यही स्थिति मन की है । साधक अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हुई इन्द्रियों को न तो रोके और न उन्हें प्रवृत्त करे । वह केवल इतना ध्यान रखे कि विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न न हो । वह प्रत्येक स्थिति में तटस्थ बना रहे । वह अपनी वृत्ति को उदासीन बना ले और किंचित् भी चिन्तन या संकल्प - विकल्प न करे। जो चित्त-संकल्पों से व्याकुल होता है, उसमें स्थिरता नहीं आ सकती । इस प्रकार कमनीय रूप को देखता हुआ भी, सुन्दर और मनोज्ञ वाणी को सुनता हुआ भी, सुगंधित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, रस का आस्वादन करता हुआ भी, कोमल पदार्थों का स्पर्श करता हुआ भी और चित्त के व्यापारों को न रोकता हुआ भी उदासीन भाव से युक्त, पूर्ण समभावी तथा आसक्ति का परित्याग कर बाह्य और आन्तरिक चिन्ताओं एवं चेष्टाओं से रहित होकर वह एकाग्रता को प्राप्त करके अतीव उन्मनीभाव (अनासक्त भाव ) को प्राप्त कर लेता है । ૨ प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता उदासी भाव में निमग्न, सब प्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्द दशा की भावना करनेवाला योगी किसी भी जगह मन को नहीं जोड़ता है । इस प्रकार आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तो वह उपेक्षित मन इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता अर्थात् इन्द्रियों में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता । ऐसी स्थिति में इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति करना छोड़ देती हैं । जब आत्मा मन में और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता, तब दोनों तरफ से भ्रष्ट बना हुआ मन अपने आप विलीन हो जाता है । जब मन प्रेरक नहीं रहता तो पहले राख से आवृत्त अग्नि की तरह शान्त हो जाता है और फिर पूर्ण रूप से उसका क्षय हो जाता है अर्थात् चिन्ता, स्मृति आदि उसके सभी व्यापार नष्ट हो जाते हैं । तब वायु-विहीन स्थान में स्थापित दीपक जैसे निराबाध प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार मनोवृत्तियों की चंचलता रूपी वायु का अभाव हो जाने से आत्मा में कर्म - मल से रहित शुद्ध आत्मज्ञान का प्रकाश होता है | 3 जैनाचार्यों ने इस प्रकार वासनाओं एवं मन के विलयन को जो अवस्था बतायी, वह सहज ही साध्य नहीं है । उसके लिए मन को अनेक अवस्थाओं में से गुजरना होता है । अतः मन की इन अवस्थाओं पर भी थोड़ा विचार कर लिया जाये । २. वही, १२।२३-२५ १. योगशास्त्र, १२।२७-२८, १२।२६, १२।१९ ३. वही, १२।३३ -३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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