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जैन, बौद्ध तथा गीता के आवारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आगम ग्रन्थों में मन-निरोध की बात अनेक स्थानों पर कही गई है, उसका क्या अर्थ है ? लेकिन वहां पर निरोध का अर्थ दमन नहीं लगाना चाहिए, अन्यथा औपशमिक और क्षायिक दृष्टियों का कोई अर्थ ही नहीं रह जायगा । अतः वहाँ पर निरोध का अर्थ क्षायिक दृष्टि से ही करना समुचित है । प्रश्न होता है कि क्षायिक दृष्टि से मन का शुद्धिकरण कैसे किया जाए ? उत्तराध्ययनसूत्र में मन के निग्रह के विषय में जो रूपक प्रस्तुत किया गया है, उसमें श्रमण केशी गौतम से पूछते हैं कि 'आप एक भयानक दुष्ट अश्व पर सवार हैं, जो बड़ी तीव्र गति से भागता है, वह आप को उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग पर कैसे ले जाता है ? गौतम इस लाक्षणिक चर्चा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह मन ही साहसिक दुष्ट अश्व है जो चारों ओर भागता है। जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बांधकर समत्व एवं धर्म शिक्षा से उसका निग्रह करता हूँ।
__ इस गाथा में दो शब्द महत्वपूर्ण हैं 'सम्मे' तथा 'धम्मसिक्खाये । धर्म शिक्षण द्वारा मन का निग्रह करने का अर्थ दमन नहीं, वरन् उसका उदात्तीकरण है । धर्म-शिक्षण का अर्थ है मन को सद् प्रवृत्तियों में लगा देना, ताकि वह अनर्थ के मार्ग पर जाये ही नहीं । ऐसे ही श्रुतरूप रस्सी से बांधने का अर्थ है विवेक एवं ज्ञान के द्वारा उसे ठीक मार्ग पर चलाना। समत्व के द्वारा किया गया निग्रह दमन नहीं है, वरन् उसे संतुलित बनाना है । मन का संतुलन दमन में तो संभव ही नहीं, क्योंकि वह तो संघर्ष की अवस्था है । जब तक वासनाओं का संघर्ष है, तब तक समत्व हो ही नहीं सकता। जैन साधनापद्धति तो समत्व (समभाव) की साधना है। वासनाओं के दमन का मार्ग तो चित्तक्षोभ उत्पन्न करता है, अतः वह उसे स्वीकार नहीं है । जैनसाधना का आदर्श क्षायिक साधना है, जिसमें वासना का दमन नहीं वरन् वासनाशून्यता ही साधक का लक्ष्य है। गीता में भी हम देखते हैं कि मन के निग्रह का जो उपाय बताया गया है, वह है-वैराग्य और अभ्यास । वैराग्य मनोवृत्तियों तथा वासनाओं का दमन नहीं है, वह तो भोगों की अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अनासक्त वृत्ति है । दूसरी ओर अभ्यास शब्द भी दमन का समर्थक नहीं है । यदि गीताकार को दमन ही इष्ट होता तो फिर वह अभ्यास की बात ही नहीं करता । अभ्यास की आवश्यकता दमन में नहीं होती, वासनाओं को दमित ही करना हो तो फिर क्रमिक प्रयास किस लिए ? अभ्यास तो वासनाओं के विलयन, परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए है । नैतिक विकास के लिए मात्र वासना की वत्तियों का विलयन आवश्यक है ।
वासनाक्षय एवं मनोजय का सम्यक मार्ग-चित्त-वृत्तियों का विलयन कैसे हो, इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं कि मन जिन-जिन विषयों में
१. उत्तराध्ययन, २३।५८
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