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________________ मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान ४९५ ३. अरूपावचर चित्त-- इस अवस्था में चित्त का आलम्बन रूपवान् बाह्य पदार्थ नहीं हैं। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता होती है लेकिन उसकी एकाग्रता निविषय नहीं होती। उसके विषय अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिञ्चनता होते हैं । ४. लोकोत्तर चित्त-इस अवस्था में वासना-संस्कार; राग-द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर निश्चित रूप से अर्हत् पद एवं निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है । योगदर्शन में चित्त को पांच अवस्याएँ--योगदर्शन में चित्तभूमि (मानसिक अवस्था) के पाँच प्रकार हैं--१. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध । १. क्षिप्त चित्त--इस अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है और एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है । स्थिरता नहीं रहती । यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है, क्योंकि इसमें मन और इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता। २. मूढ़ चित्त--इस अवस्था में तम की प्रधानता रहती है और इससे निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है । निद्रावस्था में चित्त की वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है । परन्तु यह अवस्था योगावस्था नहीं है । ३. विक्षिप्त चित्त-विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता है और पहला विषय छूट जाता है । यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है । ४. एकाग्र चिरा-यह वह अवस्था है, जिसमें चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण या ध्यान की अवस्था है । इस अवस्था में चित्त किसी विषय पर विचार या ध्यान करता रहता है। इसलिए इसमें भी सभी चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं होता, तथापि यह योग की पहली सीढ़ी है। ५. निरुद्ध चित्त-इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय-विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शांत अवस्था में आ जाता है। जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की इन विभिन्न अवस्थाओं के नामों में चाहे अन्तर हो, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं है, जैसाकि निम्न तालिका से स्पष्ट है। १. भारतीय दर्शन (दत्ता), पृ० १९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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