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मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान
४८५ न देकर भ्रांत ज्ञान देता है। उसी प्रकार यदि मन, राग-द्वेषादि वृत्तियों से दूषित (रंगीन) है, तो वह यथार्थज्ञान नहीं देता और बन्धन का कारण बनता है। लेकिन यदि मन रूपी ऐनक निर्मल है तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान देकर हमें मुक्त कर देता है । जिस प्रकार ऐनक में बिना किसी चेतन आँख के देखने की कोई शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार जड़ मन-परमाणुओं में भी बिना किसी चेतन आत्मा के संयोग के बंधन-मुक्ति की शक्ति नहीं होती । वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार ऐनक में देखनेवाले नेत्र हैं लेकिन विकार या रंगीनता नेत्र में न होकर ऐनक में है उसी प्रकार अविद्या और राग-द्वषादि विकार आत्मा से नहीं वरन् मन से होते हैं और वे ही बन्धन के हेतु हैं । अतः मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है ।
मन अविद्या का वासस्थान-जैन, बौद्ध और वैदिक आचार-दर्शन इस बात में एक मत हैं कि बन्धन का कारण अविद्या (मोह) है । अब प्रश्न यह है कि इस अविद्या का वासस्थान क्या है ? आत्मा को इसका वासस्थान मानना भ्रान्ति होगी, क्योंकि जैन और वेदान्त दोनों परम्पराओं में आत्मा का स्वरूपभाव तो सम्यग्ज्ञानमय है अथवा वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, मिथ्यात्व, मोह किंवा अविद्या आत्माश्रित हो सकते हैं, लेकिन वे आत्मगुण नहीं हैं और इसलिए उन्हें आत्मगत मानना युक्तिसंगत नहीं है । अविद्या को जड़-प्रकृति का गुण मानना भी भ्रान्ति होगी, क्योंकि यह ज्ञानाभाव ही नहीं वरन् विपरोत ज्ञान भी है। अतः अविद्या का वासस्थान मन को ही माना जा सकता है जो जड़-चेतन की योजक कड़ी है । अतः मन में ही अविद्या निवास करती है और मन का निवर्तन होने पर शुद्ध आत्मदशा में अविद्या की सम्भावना किसी भी स्थिति में नहीं हो सकती है।
जैन परम्परा के समान गीता में भी यह कहा गया है कि इन्द्रियां, मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान हैं । इनके आश्रयभूत होकर ही यह काम ज्ञान को आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित करता है।' ज्ञान आत्मा का कार्य है, लेकिन ज्ञान में जो विकार आता है वह आत्मा का कार्य न होकर मन का कार्य है । फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां गीता में विकार या काम का वासस्थान मन को माना गया है, वहाँ जैन-विचार में कामादि का वासस्थान आत्मा को ही माना गया है । वे मन के कार्य अवश्य हैं, लेकिन उनका वासस्थान आत्मा ही है। जैसे रंगीनता ऐनक में है, लेकिन रंगीनता का ज्ञान तो चेतना में ही होगा।
यहाँ शंका होती है कि जैन-विचारणा में तो अनेक बद्ध प्राणियों को अमनस्क माना गया है, फिर उनमें जो अविद्या या मिथ्यात्व है, वह किसका कार्य है ? इसका उत्तर यह है कि जैन-दर्शन में प्रथम तो सभी प्राणियों में भावमन की सत्ता स्वीकार की गयी है ।
१. गीता, ३।४० Jain Education International
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