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________________ ४८६ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन दूसरे श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यदि मन को सम्पूर्ण शरीरगत • मानें तो वहाँ द्रव्यमन भी है, लेकिन वह केवल ओघ संज्ञा है । दूसरे शब्दों में उन्हें केवल विवेकशक्ति विहीन मन (Irrational Mind) प्राप्त है । जेन-दर्शन में जो समनस्क और अमनस्क प्राणियों का भेद वर्णित है वह विवेक-शक्ति (Reason) की अपेक्षा से है। समनस्क प्राणी का अर्थ विवेक-शक्ति युक्त प्राणी । अनमस्क प्राणियों में यह विवेकक्षमता नहीं होती, वे न तो सुदीर्घ भूत की स्मृति रख सकते हैं और न भविष्य का एवं शुभाशुभ का विचार कर सकते हैं । उनमें मात्र कालिक संज्ञा होती है और मात्र अंध-वासनाओं (मूलप्रवृत्ति) से उनका व्यवहार चालित होता है। अमनस्क प्राणियों में सत्तात्मक मन तो है लेकिन उनमें शुभाशुभ का विवेक नहीं होता । विवेकाभाव के कारण ही इन्हें अमनस्क कहा जाता है । जैन-दर्शन के अनुसार नैतिक विकास का प्रारम्भ विवेकक्षमतायुक्त मन की उपलब्धि से ही होता है। जब तक विवेकक्षमतायुक्त मन प्राप्त नहीं होता तब तक शुभाशुभ का विभेद नहीं किया जा सकता और जब तक शुभाशुभ का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक नैतिक विकास की सही दिशा का निर्धारण और नैतिक प्रगति नहीं हो पाती है। नैतिक प्रगति एवं नैतिक उत्तरदायित्व और मन-इस प्रकार जैन-दर्शन में विवेकक्षमता युक्त मन (Rational Mind) नैतिक प्रगति की अनिवार्य शर्त माना गया है । ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य विचारकों ने भी बौद्धिक क्षमता या शुभाशुभ विवेक को नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक माना है । फिर भो जन-विचारणा का उनसे प्रमुख मतभेद यह है कि वे नैतिक उत्तरदायित्व और नैतिक प्रगति दोनों के लिए विवेकक्षमता को आवश्यक मानते हैं, जबकि जैन-विचार में नैतिक प्रगति के लिए तो विवेक आवश्यक है, लेकिन नैतिक उत्तरदायित्व के लिए विवेकशक्ति आवश्यक नहीं है । यदि कोई प्राणी विवेकाभाव में भी कोई अनैतिक कर्म करता है, तो जैन-दृष्टि से वह नैतिक रूप से उत्तरदायी होगा। क्योंकि, १. प्रथमतः विवेकाभाव ही प्रमत्तता है और यही अनैतिककता का कारण है । अतः विवेकपूर्वक कार्य न करने वाला नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं है। २. विवेक-शक्ति तो सभी आत्माओं में है, जिनमें वह प्रसुप्त है उस के लिए भी वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं । ३. अनेक प्राणी तो ऐसे हैं जिनमें विवेक प्रकट हो चुका था, जो कभी समनस्क या विवेकवान् प्राणी थे, लेकिन उन्होंने उस विवेक-शक्ति का सम्यक् उपयोग नहीं किया । फलस्वरूप उनमें वह विवेकशक्ति पुनः कुण्ठित हो गयी । अतः ऐसे प्राणियों को नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं माना जा सकता। सूत्रकृतांग में स्पष्ट उल्लेख है कि कई जीव ऐसे भी हैं जिनमें जरा भी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति या मन या वाणी की शक्ति नहीं होती। वे मूढ जीव सबके प्रति समान दोषी हैं । उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में संज्ञा (विवेक) १. दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ० १४० तथा भाग २, पृ० ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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