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________________ ४८४ जेन, नौश तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उसके विषयासक्त होने पर बन्धन और उसका निविषय होना ही मुक्ति है'।' गीता में कहा गया है 'इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ही इस (वासना) के वासस्थान कहे गये हैं और (वासना) इन के द्वारा ही ज्ञान को आवृत्त कर जीवात्मा को मोहित करती है (बन्धन में डाले रखती है)। 'जिसका मन प्रशान्त है, पाप (वासना) से रहित है, जिसके मन की चंचलता समाप्त हो गई है, उस ब्रह्मभूत योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है' । आचार्य शंकर भी विवेक चूड़ामणि में लिखते कि हैं मन से ही बन्धन की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि विषयों में राग कर बाँधता है और फिर विषवत् विषयों में विरसता उत्पन्न कर मुक्त कर देता है। इसीलिए इस जीव के बन्धन और मुक्ति के विधान में मन ही कारण है, रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन का हेतु होता है तथा रज-तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष का कारण होता है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि सभी आचार-दर्शनों में मन ही बन्धन और मुक्ति का प्रबलतम कारण है। मन हो बन्धन और मुक्ति का कारण क्यों ?-प्रश्न यह है कि मन ही को क्यों बन्धन और मुक्ति का कारण माना गया ? जैन-तत्त्वमीमांसा में जड़ और चेतन दो मूल तत्त्व हैं, शेष आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा इन दो मूल तत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक वाचिक, और कायिक क्रियाओं (योग) का अभाव है। दूसरी ओर मनोभाव से रहित कायिक और वाचिक कर्म एवं जड़ कर्म-परमाणु भी बन्धनकारक नहीं होते हैं । बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव आत्मिक अवश्य माने गये हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए कहा गया है कि बिना चेतन-सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते है । चेतन-सत्ता रागादि के उत्पादन का निमित्त कारण अवश्य है, लेकिन बिना मन के वह रागदि-भाव उत्पन्न नहीं कर सकती। इसीलिए यह कहा गया कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है । मन आत्मा के बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना भाग सम्पन्न करता है, इसे निम्न रूपक से समझा जा सकता है। मान लीजिए कर्मावरण से कुंठित शक्ति वाला आत्मा उस आँख के समान है, जिसकी देखने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। जगत् एक श्वेत वस्तु है और मन ऐनक (चश्मा) है । आत्मा को मुक्ति के लिए जगत् के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करना है, लेकिन अपनी स्वशक्ति के कुंठित होने पर वह स्वयं तो सीधे रूप में यथार्थ ज्ञान नहीं पा सका । उसे मनरूपी ऐनक की सहायता आवश्यक होती है, लेकिन यदि ऐनक रंगीन काँच का हो तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान १. मैत्राण्युपनिषद्, ४।११, तेजोबिन्दूपनिषद्, ५।९५ २. गीता, ३।४० ३. वही, ३।२७ ४. विवेक चूड़ामणि, १७५-१७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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