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मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान
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प्राप्त हो सकती है और वे ही अपनी साधना के द्वारा मोक्षमार्ग की ओर बढ़ने के अधिकारी हैं । सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए तीव्रतम क्रोधादि आवेगों का संयमन आवश्यक है, क्योंकि मन के द्वारा ही आवेगों का संयमन सम्भव है। इसीलिए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए की जानेवाली ग्रन्थभेद की प्रक्रिया में यथा प्रवृत्तिकरण तब होता है जब मन का योग होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर कहते हैं कि मन के संयमन से एकाग्रता आती है, जिससे ज्ञान (विवेक) प्रकट होता है
और उस विवेक से सम्यक्त्व अथवा शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि होती है और अज्ञान (मिथ्यात्व) समाप्त हो जाता है । इस प्रकार अज्ञान का निवर्तन और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि जो मुक्ति (निर्वाण) की अनिवार्य शर्त है, बिना मनःशुद्धि के सम्भव नहीं है । अतः जैन-विचारणा में मन मुक्ति का आवश्यक हेतु है । शुद्ध संयमित मन निर्वाण का हेतु बनता है, जब कि अनियंत्रित मन ही अज्ञान अथवा मिथ्यात्व का कारण होकर प्राणियों के बन्धन का हेतु है । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं 'मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बन्धन) भी पूरी तरह रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म का आस्रव मन के अधीन है, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती रहती है ।२'
बोद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध-दर्शन में चित्त, विज्ञप्ति आदि मन के पयार्यवाची शब्द हैं । भगवान् बुद्ध का कथन है कि सभी प्रवृत्तियों का आरम्भ मन से होता है, मन की उनमें प्रधानता है । वे प्रवृत्तियाँ मनोमय हैं । जो सदोष मन से आचरण करता है, भाषण करता है, उसका दुःख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे रथ का पहिया घोड़े के पैरों का अनुगमन करता है । जो स्वच्छ (शुद्ध) मन से भाषण एवं आचरण करता है, उसका सुख वैसे ही अनुगमन करता है जैसे साथ नहीं छोड़ने वाली छाया ।' कुमार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक अहितकारी' और सन्मार्ग पर लगा हुआ चित्त सर्वाधिक हितकारी है । जो इसका संयम करेंगे, वे मार के बन्धन से मुक्त हो जायेंगे । महायान सम्प्रदाय के प्रमख ग्रन्थ लंकावतारसूत्र में कहा है 'चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त की ही विमुक्ति होती है'।
गोता एवं वेदान्त का दृष्टिकोण-वेदान्त-परम्परा में भी सर्वत्र यही दृष्टिकोण मिलता है कि बन्धन और मुक्ति का कारण मन ही है । मैत्राण्युपनिषद् एवं तेजोबिन्दूपनिषद् में भी कहा गया है कि 'मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण मन है।
१. उत्तराध्ययनसूत्र, २९।५६ ४. वही, २
७. वही, ३७ Jain Education International
२. योगशास्त्र, ४३८ ३. धम्मपद, १ ५. वही, ४२ ६. वही, ४३
८. लंकावतारसूत्र, १४५। For Private & Personal Use Only
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