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________________ १० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में मनु ने आचार को परमधर्म कहकर धर्म का लक्षण चारित्र या आचरण बताया है ।१ आचार को स्पष्ट करते हुए मनु ने यह भी बताया है कि आचरण का वास्तविक अर्थ रागद्वेष से रहित व्यवहार है। वे कहते हैं कि रागद्वेष से रहित सज्जन विद्वानों द्वारा जो आचरण किया जाता है और जिसे हमारी अन्तरात्मा ठीक समझती है वही आचरण धर्म है ।२ ३. धर्म कर्तव्य की विवेचना करता है-लोकमंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्वों की व्याख्या करना धर्म का काम है। जैन परम्परा में धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार धर्म को विश्वकल्याणकारक बताया है । महाभारत में धर्म की परिभाषा इस रूप में की गयी है कि जो प्रजा को धारण करता है अथवा जिससे समस्त प्रजा ( समाज ) का धारण या संरक्षण होता है वही धर्म है।४ गीता में धर्मशास्त्र को कार्याकार्य अथवा कर्तव्याकर्तव्य की व्यवस्था देनेवाला बताया गया है।५।। ४. धर्म परम श्रेय की विवेचना करता है—दशवकालिक नियुक्ति में धर्म को भाव मंगल और सिद्धि ( श्रेय ) का कारण कहा है । आचारांगनियुक्ति में भी धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण बताया गया है। उसमें कहा गया है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम ( सदाचार ) है और संयम का सार निर्वाण है । ६ इस प्रकार धर्म को परमश्रेय का उद्बोधक माना गया है । कठोपनिषद् में भी श्रेय और प्रेय के विवेचन में बताया गया है कि जो श्रेय का चयन करता है, वही विद्वान् है । आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म को भौतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युदय का साधक बताया है । जैन परम्परा में धर्म की एक परिभाषा वस्तुस्वभाव के रूप में भी की गयी है। जिससे स्वस्वभाव में अवस्थिति और विभावदशा का परित्याग होता है वह धर्म है, क्योंकि स्वस्वभाव ही हमारा परमश्रेय हो सकता है और इस रूप में वही धर्म कहा जाता है। धर्म का लक्षण यह भी बताया गया है कि जो आत्मा का परिशुद्ध स्वरूप है और जो आदि, मध्य और अन्त सभी में कल्याणकारक है वही धर्म है ।१० वैशेषिकसूत्र में धर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जिससे अभ्युदय और श्रेय की सिद्धि होती है वह धर्म है। १. मनुस्मृति, २।१०८. २. वही, २।१. ३. दशवकालिक, १११; योगशास्त्र ४।१००. ४. महाभारत, कर्णपर्व, ६९।५९. ५. गीता, १६।२४. ६. आचारांगनियुक्ति, २४४. ७. कठोपनिषद् , २।१।२. ८. अमोल-सूक्ति-रत्नाकर, पृ० २७. ९. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २६६३. १०. वही, पृ० २६६९. ११. वैशेषिकसूत्र, उद्धृत-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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