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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
६. नीतिशास्त्र मूल्यांकन का विज्ञान है। ७. नीतिशास्त्र नैतिक प्रत्ययों के विश्लेषण का विज्ञान है।
भारतीय परम्परा में धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र दोनों अलग-अलग शास्त्र माने गये हैं, फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय परम्परा में नीतिशास्त्र शब्द का प्रयोग भले ही हो, लेकिन उसका अर्थ पाश्चात्य परम्परा से भिन्न है । भारत में नीतिशास्त्र का प्रयोग राजनीति के अर्थ में हुआ है, फिर भी उसमें सामाजिक जीवन-व्यवस्था के नियमों का विचार अवश्य मिलता है। पाश्चात्य परम्परा में नीतिशास्त्र को 'एथिक्स' कहा जाता है। एथिक्स शब्द इथोस ( ethos ) से बना है, जिसका अर्थ रीतिरिवाज है । इस सन्दर्भ में नीतिशास्त्र सामाजिक नियमों या आदेशों से सम्बन्धित माना जाता है । पाश्चात्य परम्परा में जिसे नीतिशास्त्र कहा जाता है, उसे भारतीय परम्परा में धर्मशास्त्र कहा गया है। अतः भारतीय सन्दर्भ में नीतिशास्त्र की परिभाषा को समझने के लिए हमें धर्म की परिभाषाओं की ओर जाना होगा। भारतीय परम्परा में धर्म को अनेक रूपों में परिभाषित किया गया है, उनमें से कुछ प्रमुख दृष्टिकोण इस प्रकार हैं
१. धर्म नियमों या आज्ञाओं का पालन है--जैन परम्परा में धर्म आज्ञापालन के रूप में विवेचित है। आचारांगसूत्र में महावीर ने स्पष्ट कहा है कि मेरी आज्ञाओं के पालन में धर्म है।' मीमांसादर्शन में धर्म का लक्षण आदेश या आज्ञा माना गया है, उसके अनुसार वेदों की आज्ञा का पालन ही धर्म है । जैन परम्परा में लौकिक नियमों या सामाजिक मर्यादाओं को भी धर्म कहा गया है । स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, संघधर्म आदि के सन्दर्भ में धर्म को सामाजिक विधि-विधानों के पालन के रूप में ही देखा गया है। इस प्रकार आचारदर्शन को नियमों अथवा रीतिरिवाजों का शास्त्र माना गया है। धर्म की ये परिभाषाएँ पाश्चात्य परम्परा में नीति की उस परिभाषा के समान हैं जिसमें नीतिशास्त्र को रीतिरिवाजों का विज्ञान कहा गया है।
२. धर्म चारित्र का परिचायक है—पाश्चात्य विचारक मैकेंजी ने नीतिशास्त्र को चरित्र का विज्ञान कहा है। जैन परम्परा में धर्म की दूसरी परिभाषा चारित्र के रूप में दी गयी है । स्थानांगसूत्र की टीका में आचार्य अभयदेव ने धर्म का लक्षण चरित्र माना है।४ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी चारित्र को ही धर्म कहा है।" आचारांगनियुक्ति के अनुसार, शास्त्र एवं प्रवचन का सार आचरण है । ६ १. आचारांग, १।६।२।१८१. २. मीमांसादर्शन, १११।२. ३. स्थानांग, १।१०।११७६०. ४. स्थानांगटीका, ४।३।३२०. ५. प्रवचनसार, १७. ६. आचारांगनियुक्ति, १६-१७.
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