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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
निरोध करना होता है, क्योंकि बन्धन का वास्तविक कारण इन्द्रिय-व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वष की प्रवृत्तियाँ हैं । गीता कहती है कि राग, द्वेष से विमुवत मनुष्य इन्द्रियव्यापार करता हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता इन्द्रिय-निरोध के स्थान पर मनोवृत्तियों के निरोध पर ही जोर देती है।
जैन, बौद्ध और गीता के समालोच्य आचार-दर्शन इन्द्रिय-निरोध का वास्तविक अर्थ इन्द्रिय-व्यापार का निरोध नहीं, वरन् उनके पीछे रही राग-द्वेष की वृत्तियों का निरोध बताते हैं। नैतिक दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापारों के स्थान पर मन की वृत्तियां ही अधिक महत्वपूर्ण है। अतः यह विचार करना आवश्यक है कि यह मन क्या है और उसका नैतिक जीवन से क्या सम्बन्ध है ?
१. गोता, २०६४,५।८-९
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