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जैन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अतः स्पर्श का नहीं, स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। जैन-दार्शनिक कहते हैं कि इन्द्रियों के शब्दादि मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए ही रागद्वेष के कारण बनते हैं, वीतराग के लिए नहीं ।२ इन्द्रियों और मन के विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं। ये विषय वीतरागियों के बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। काम भोग न किसी को बन्धन में डालते हैं और न किसी में विकार ही पैदा कर सकते हैं, किन्तु जो विषय में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है।
बौद्ध दर्शन में इन्द्रिय-दमन-इस विषय में बौद्ध आचार-परम्परा का दृष्टिकोण भा जैन-परम्परा ओर गीता के समान हा है। संयुत्त निकाय में बुद्ध कहते हैं कि न चक्षु रूपों बा बन्धन है और न रूप ही चक्षु का बन्धन है । किंतु जो जहाँ दोनों के निमित्त से छन्द (राग) उत्पन्न है, वस्तुतः वही बन्धन है । ज्ञानी साधक के देखने में देखना भर होगा, सुनने में सुनना भर होगा, जानने में जानना भर होगा अर्थात् वह रूपादि का ज्ञाता-दृष्टा होगा, उनमें रागासक्त नहीं होगा। अप्रमत्त साधक रूप आदि में राग नहीं करता; रूपों को देखकर स्मृतिवान् रहता है, विरक्त चित्त से वेदन करता है, उनमें अनासक्त रहता है । रूप को देखने और जानने से उसका रागबन्धन घटता ही है, बढ़ता नहीं, क्योंकि वह स्मृतिवान् होकर विहरता है । बुद्ध की दृष्टि में भी सारा बन्धन इन्द्रिय व्यापार में नहीं, वरन् मन की दशा पर निर्भर है।"
गीता में इन्द्रिय-दमन-गीता में भी हम इसी प्रकार का निर्देश पाते हैं। उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के अर्थों में अर्थात् सभी इन्द्रियों के विषयों में स्थित जो राग और द्वष है उन दोनों के वश में नहीं होये, क्योंकि वे दोनों हो कल्याण-मार्ग में विघ्न डालने वाले महान् शत्रु है। जो मूढ-बुद्धि पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से बलात् रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, उस पुरुष के राग-द्वेष निवृत्त नहीं होने के कारण वह मिथ्याचारी या दम्भी कहा जाता है।' इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग निवृत्त नहीं होता। ऐसा व्यक्ति सच्चे अर्थों में निवृत्त नहीं कहा जाता । वास्तविकता यह है कि इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध नहीं, वरन् उनमें निहित राग-द्वेष का
१. आचारांग, २।३।१५।१३१-२३५ ३. वही, ३२।१०० ५. संयुत्तनिकाय, ४१३५।२३२ ७. वही, ४।३५।९४ ९. वही, ३६
२. उत्तराध्ययन, ३२।१०९ ४. वही, ३२।१०१ ६. वही, ४१६५।९५
८. गीता, ३१३४ १०. वही, २०५९
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