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. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
ज्ञान का विनाश करने वाले इस काम का परित्याग कर' और यदि तू यह समझे कि इन्द्रियों को रोक कर कामरूप वैरी को मारने की मेरी शक्ति नहीं है तो तेरी यह भूल है, क्योंकि इस शरीर से तो इन्द्रियों को परे (श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म) कहते हैं और इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त परे है वह आत्मा है, अतः आत्मा के द्वारा इनका निरोध करना ही चाहिए। ____ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और ये इन्द्रियों के विषय जीवात्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार आत्मा का आतंरिक समत्व भंग हो जाता है । इसलिए कहा गया है कि साधक शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श इन पांचों इन्द्रिय-विषयों के सेवन को सदा के लिए छोड़ दे।
क्या इन्द्रिय-वमन संभव है ?-सभी आचार-दर्शन इन्द्रिय-संयम पर बल देते हैं । लेकिन क्या इनका निरोध संभव है ? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जब तक जीव देह-धारण किये है, उसके द्वारा इन्द्रिय-व्यापार का पूर्ण निरोध संभव नहीं। कारण यह है कि वह जिस परिवेश में रहता है, उसमें इन्द्रियों को अपने विषयों से सम्पर्क रखना ही पड़ता है । जैसे, आंख के समक्ष उसका विषय प्रस्तुत होने पर वह उसे देखने से वंचित नहीं रख सकता । भोजन करते समय आस्वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापार का निरोध असम्भव तथ्य है।
यदि इन्द्रिय-व्यापारों का पूर्ण निरोध सम्भव नहीं तो फिर इन्द्रिय-संयम का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक है ।
जैन-दर्शन में इन्द्रिय-दमन--जैन-दर्शन के अनुसार इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं वरन् विषय-सेवन के मूल में निहित राग-द्वेष का समाप्त करना है। इस विषय पर आचारांगसूत्र में सुन्दर एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जायें, अतः शब्दों का नहीं, शब्द के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप देखा न जाये, अतः रूप का नहीं, रूप के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आयी हुई सुगन्धि या दुर्गन्धि सूचने में न आये, अतः गंध का नहीं, गंध के प्रति जगने वाली रागद्वष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है कि रसना पर आया हुआ
अच्छा या बुरा रस चखने में न आये, अतः रस का नहीं, रस के प्रति जगने वाले राग'द्वष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है कि शरीर से स्पर्श होने वाले अच्छे या
१. गीता, ३६४१
२. वही, ३।४२
३. उत्तराध्ययन, १६।१०
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