________________
जैन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
४७३ तथा शरीर छूटने पर उसकी दुर्गति जाननी चाहिए । कौन-सी दो ?--इन्द्रियों में संयम न करना और भोजन की मात्रा न जानना ।
जिस के चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना काय, और मन इतने द्वार गुप्त नहीं हैं, भोजन करने में मात्रा नही जानने वाला और इन्द्रियों में असंयमी भिक्षु शारीरिक दुःख तथा चत्त सिक दुःख को प्राप्त होता है, उसी प्रकार भिक्षु जलती हुई काया और जलते हुए चित्त से दुःखपूर्वक विहरता है ।
भिक्षुओ, दो बातों से युक्त भिक्षु इसी जन्म में सुख, पीड़ा-रहित, परेशानी रहित और सन्ताप रहित विहरता है तथा शरीर छूटने पर उसकी सुगति जाननी चाहिए । किन दो ?-इन्द्रियों में संयम करना और भोजन करने में मात्रा जानना।
जिसके चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, रसना, काय और मन इनके द्वार भली प्रकार गुप्त हैं, भोजन करने में मात्रा जानने वाला और इन्द्रियों में संयमी है, वह भिक्षु सुखपूर्वक शरीरसुख तथा चैत्तसिक-सुख को प्राप्त होता है उस प्रकार का भिक्षु न जलती हुई काया और न जलते हुए चित्त से युक्त सुखपूर्वक विहरता है।'
धम्मपद में भी कहा है कि जो मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में असंयत रहता है उसे मार (काम) साधना से उसी प्रकार गिरा देता है, जैसे कमजोर वृक्ष को वायु गिरा देती है । लेकिन जो इन्द्रियों के प्रति सुसंयत रहता है उसे मार (काम) उसी प्रकार साधना से विचलित नहीं कर सकता, जैसे वायु पर्वत को विचलित नहीं कर सकता ।५ प्राज्ञ भिक्षु के लिए यह आवश्यक है कि वह इन्द्रियों का निरोध कर सन्तुष्ट हो, भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहे।
गीता में इन्द्रिय-निरोध--गीता में भी भगवान् कृष्ण ने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि जिस प्रकार जल में नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मन-सहित विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय इस पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ है । जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार से इन्द्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है। साधना में प्रयासशील बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ जबरदस्ती हर लेती हैं और उसे साधना के पथ से च्युत कर देती हैं । अतः सब इन्द्रियों को अपने अधिकार में करके चित्त को मुझ परमात्मा में नियोजित करे । जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने अधिकार में हैं, वही वस्तुतः प्रज्ञावान् है । अन्यत्र कहा गया है कि सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके
१. इतिवृत्तक, २०११ ४. गीता, २०६७
२. धम्मपद, ७-८ ५. वही, २०६८
३. धम्मपद, ३७५ ६. वही, २१६०-६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org