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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
आसक्त जीव सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण, व्यय तथा वियोग की चिन्ता में लगा रहता है, यह संभोग काल में भी अतृप्त रहता है । फिर उसे सुख कहां है ?' गंध में आसक्त जीव को कुछ भी सुख नहीं होता, वह सुगन्ध के उपभोग के समय भी दुःख एवं क्लेश ही पाता है ।
रस को रसनेन्द्रिय ग्रहण करती है और रस रसनेन्द्रिय का ग्राम विषय है। मन-पसन्द रस राग का कारण और मन के प्रतिकूल रस द्वष का कारण है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में मत्स्य काँटे में फंसकर मारा जाता है, उसी प्रकार रसों में अत्यन्त गृद्ध जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है । रसों में आसक्त जीव को कुछ भी सुख नहीं होता, वह रसभोग के समय दुःख और क्लेश ही पाता हैं। इसी प्रकार अमनोज्ञ रसों मे द्वष करने वाला जीव भी दुःख-परम्परा बढाता है और कलुषित मन से कर्मों का उपार्जन करके दुःखद फल भोगता है ।
स्पर्श को शरीर ग्रहण करता है और स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय ग्राह्य विषय है । सुखद स्पर्श राग का तथा दुःखद स्पर्श द्वेष का कारण है। जो जीव सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है, वह जंगल के तालाब के ठंडे पानी में पड़े हुए और मकर द्वारा ग्रसे हुए भैसे की तरह अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है। स्पर्श की आशा में पड़ा हुआ भारीकर्मी जीव चराचर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है। सुखद स्पर्शों से मूच्छित प्राणी उन वस्तुओं की प्राप्ति, रक्षण, व्यय एवं वियोग की चिन्ता में ही घुला करता है । भोग के समय भी वह तृप्त नहीं होता, फिर उसके लिए सुख कहाँ ? ° स्पर्श में आसक्त जीवों को किंचित् भी सुख नहीं होता । जिस वस्तु की प्राप्ति क्लेश एवं दुःख से हुई, उसके भोग के समय भी कष्ट ही मिलता है।" ___आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं कि स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत होकर हाथी, रसनेन्द्रिय के वशीभूत मछली, घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर भ्रमर, चक्षु-इन्द्रिय के वशीभूत होकर पतंगा और श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत होकर हरिण मृत्यु का ग्रास बनता है । जब एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में आसक्त मनुष्य की क्या गति होगी ?
बौद्ध-दर्शन में इन्द्रिय निरोध-इतिवृत्तक में बुद्ध कहते हैं कि भिक्षुओ, दो बातों से युक्त भिक्षु इसी जन्म में दुःख, पीड़ा, परेशानी और सन्ताप के साथ विहरता है
१. उत्तराध्ययन, ३२।५४ ४ वही, ३२।६३ ७. वही, ३२।७२ १०. वही,३२१८७
२. वही, ३२।५८ ५. वही, ३२।७१
८. वही, ३२१७६ ११. वही, ३२।८४
३. वही, ३२।६२ ६. वही, ३२१७२ ९. वही, ३२।७०
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