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________________ जन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष ४७१ जैन-वर्शन में इन्द्रिय-निरोध-इन्द्रियों के विषय अपनी पूर्ति के प्रयास में किस प्रकार नैतिक पतन की ओर ले जाते हैं, इसका सजीव चित्रण उत्तराध्ययन के ३२ वें अध्याय में मिलता है । यहां उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं। रूप को ग्रहण करनेवाली चक्षु इन्द्रिय है, और रूप चक्षु इन्द्रिय का विषय हैं । प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का कारण है । जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर पतंग मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यंत आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं। रूप की आशा के वश पड़ा हुआ अज्ञानीजीव, त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है । रूप में मच्छित जीव उन पदार्थो के उत्पादन रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहां है ? वह संभोग काल में भी अतृप्त रहता है। रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपभोग के समय भी वह दुःख पाता है।" श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को ग्रहण करने वाली और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है । प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है । जिस प्रकार राग में गृद्ध मृग मारा जाता जाता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में मच्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है । मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वशवर्ती भारीकर्मी जीव अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है ।' शब्द में मूच्छित जीव मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह संभोग काल के समय में भी अतृप्त ही रहता हैं, फिर उसे सुख कहां है ? तृष्णा के वश में पड़ा हुआ वह जीव चोरी करता है तथा झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता है और दुःख से नहीं छूट पाता। गन्ध को नासिका ग्रहण करती है और गन्ध नासिका का ग्राह्य विषय है । सुगन्ध राग का कारण है और दुर्गन्ध द्वष का कारण है। जिस प्रकार सुगन्ध में मूच्छित सर्प बिल से बाहर निकलकर मारा जाता है, उसी प्रकार गन्ध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है । सुगन्ध के वशीभूत होकर बालजीव अनेक प्रकार से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उन्हें दुःख देता है। सुगन्ध में १० १. उत्तराध्ययन, ३२१२३ ४. वही, ३२।२८ ७. वही, ३२१३७ १०. वही, ३२।४३ १३. वही, ३२१५३ २. वही, ३२।२४ ५. वही, ३२॥३२ ८. वही, ३२१४० ११. वही, ३२।४९ ३.. वही, ३२२७ ६. वही, ३२।३६ ९. वही, ३२१४१ १२. वही, ३२१५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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