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________________ ४७० जैन, बौद्ध तथा गीता के माचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कारण उससे जीवात्मा प्रभावित होता है । वस्तुतः यह इन्द्रियों का विषय-सम्पर्क ही व्यक्ति के नैतिक पतन का कारण बन जाता है। अतः समालोच्य आचार-दर्शनों ने संयम पर जोर दिया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जब इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है तब उन विषयों में आसक्ति तथा तृष्णा के भाव जागृत होते है और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है अथवा अनुकूल विषयों की प्राप्ति में कोई बाधा आती है तो घृणा या विद्वेष के भाव जागृत होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःख का प्रेरक नियम एक-दूसरे के रूप में बदल जाता है । सुख का स्थान राग आसक्ति या तृष्णा का भाव ले लेता है और दुःख का स्थान घृणा या द्वष का भाव ले लेता है । राग-द्वेष की ये वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक अधःपतन एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण हैं। सभी समालोच्य आचार-दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। जैन विचारक कहते हैं कि राग और द्वेष दोनों ही कर्म-परम्परा के बीज हैं और कर्मपरम्परा अविद्या (मोह) और जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है ।' गीता में कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, इच्छा (राग) और द्वेष के द्वन्द्व में मोह से आवृत होकर प्राणी इस संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। रजोगुण से उद्भूत होने वाले काम (राग) और क्रोध ही प्राणी को दुराचरण में प्रवृत्त करते हैं । भगवान् बुद्ध कहते हैं जिसने राग द्वष और मोह को छोड़ दिया है वह फिर माता के गर्भ में नहीं पड़ता। इस समग्र विवेचन को संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं कि विविध इन्द्रियों एवं मन के द्वारा उनके विषयों के ग्रहण की चाह में वासना के प्रत्यय का निर्माण होता है। वासना का प्रत्यय पुनः अपने विधेयात्मक एवं निषेधात्मक पक्षों के रूप में सुख और दुःख की भावनाओं को जन्म देता है । यही सुख और दुःख की भावनाएं राग और द्वष की वृत्तियों का कारण बन जाती हैं। यही राग-द्वेष की वृत्तियाँ क्रोध, मान, माया, लोभादि विविध प्रकार के अनैतिक व्यापार का कारण होती हैं । इन सबके मूल में तो ऐन्द्रिक एवं मनोजन्य व्यापार ही हैं और इसलिए साधारण रूप से यह माना गया कि नैतिक आचरण एवं नैतिक विकास के लिए इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का निरोध कर दिया जाये। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियों पर काबू किये बिना राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता। अतः इस सम्बन्ध में विचार करना उपयोगी होगा कि क्या इन्द्रिय और मन के व्यापारों का निरोध सम्भव है और यदि सम्भव है तो उसका वास्तविक रूप क्या है ? १. उत्तराध्ययन, ३२।६ । ३. संयुत्तनिकाय, १।२।१० २. गीता, ७।२७।३।३७ ४. योगशास्त्र, ४।२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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