SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन माध्यमिककारिकावृत्ति में कहा गया है कि काम मैं तेरे मूल को जानता हूँ, तू संकल्पों से उत्पन्न होता है । न मैं तेरा संकल्प करूँगा और न तू उत्पन्न होगा । वस्तुतः काम और संकल्प परस्पराश्रित हैं । काम संकल्पजनित और संकल्प कामजनित है । काम अव्यक्त संकल्प है और संकल्प व्यक्त काम है । ४६२ गीता का दृष्टिकोण - गीता में अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया कि हे कृष्ण, वह क्या वस्तु है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप करता है, जैसे कोई उससे बलपूर्वक पाप करवा रहा हो ? कृष्ण ने यही कहा कि हे अर्जुन, रजोगुण से उत्पन्न होनेवाले काम और क्रोध ही प्रेरक कारण हैं' । वस्तुतः काम और क्रोध में भी क्रोध तो काम से ही उत्पन्न होता है । इस प्रकार काम ही एक मात्र प्रेरक तत्त्व है जो मनुष्य को पापाचरण में नियोजित करता है । आचार्य शंकर कहते हैं कि प्राणी काम से प्रेरित होकर ही पाप करता है 13 प्रवृत्तजनों का यही प्रलाप सुना जाता है कि तृष्णा के कारण ही मैं यह कार्य करता हूँ । यही काम या संकल्प आचरण को नैतिक मूल्य प्रदान करता है । इसी के आधार पर कर्मों का नैतिक मूल्यांकन किया जाता है और यही समग्र नैतिक निर्णय की परिसीमा में आनेवाले कर्मों की उत्पत्ति का मूल हेतु या प्रेरक तथ्य है । पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने भी व्यवहार का मूलभूत प्रेरक तथ्य काम ही माना है । प्रयोजनवाद के प्रणेता डा० मेकड्यूगल प्रेरक तथ्य को हार्मी, अर्ज या मूलप्रवृत्ति ( Instinct ) कहते हैं । पाश्चात्य मनोविज्ञान में व्यवहार के मूलभूत प्रेरकों का वर्गीकरण - पौर्वात्य एवं पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक इस विषय में एकमत हैं कि व्यवहार का प्रेरकतत्त्व वासना या काम है, फिर भी इस प्रश्न को लेकर कि वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं, उनमें मतैक्य नहीं है । फ्रायड जहाँ काम को ही मूल प्रेरक मानते हैं, वहाँ दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या १०० तक मान ली है । यह निश्चय कर पाना कि व्यवहार के मूलभूत प्रेरक या मूल प्रवृत्तियाँ कितनी हैं, एक जटिल समस्या है । पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक जगत् में मूलप्रवृत्ति की परिष्कृत धारणा को प्रस्तुत करनेवाले डा० मेकड्युगल स्वयं भी अपने लेखन में इनकी संख्या के बारे में स्थिर नहीं रह पाये, उन्होंने स्वयं ही अपने प्रारम्भिक लेखन में इनकी संख्या ७ मानी थी, जो बाद में १४ तक हो गयी । मूलभूत १४ मूलप्रवृत्तियाँ निम्न हैं - १. पलायनवृत्ति (भय), २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता (क्रोध), ५. आत्म गौरव की भावना (मान ), ६. आत्म २. वही, २।६२ ३-४. गीता (शां०) ३।३७ १. गीता, ३।३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy