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जैन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
हीनता, ७. मातृत्व की संप्रेरणा, ८ समूह भावना, ९ संग्रहवृत्ति, १०. रचनात्मकता, ११. भोजनान्वेषण, १२. काम, १३. शरणागति और १४. हास्य ( आमोद ) । भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध में कोई मतैक्य महीं है कि मूलभूत व्यवहार के प्रेरक तत्त्व कितने हैं ।
जैन-दर्शन में व्यवहार के प्र ेरक तत्वों (संज्ञाओं) का वर्गीकरण - जहाँ तक जैनविचारणा का प्रश्न है, उसमें भी हमें इनकी संख्या के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं मिलती । जैनागमों में सण्णा चेतनापरक व्यवहार के प्रेरक तथ्यों के अर्थ में रूढ़ हो गया है । संज्ञा शारीरिक आवश्यकताओं एवं भावों को मानसीक संचेतना है, जो परवर्ती व्यवहार की प्रेरक बनती है । किसी सीमा तक जैन 'संज्ञा' शब्द को मूलप्रवृत्ति का समानार्थक माना जा सकता है। जैनागमों में संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से मिलता है । जिनमें तीन वर्गीकरण प्रमुख हैं ।
१. आहार - संज्ञा, २. भय - संज्ञा, ३. परिग्रह - संज्ञा और
(अ) चतुविध वर्गीकरण
४. मैथुनसंज्ञा ।
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(ब) दशविध वर्गीकरण - १. आहार, २. भय, ३. परिग्रह, ४. मैथुन, ५ क्रोध ६. मान, ७ माया, ८. लोभ ९. लोक और १०. ओघ । २
(स) षोडषविध वर्गीकरण - १. आहार, २. भय, ३ परिग्रह, ४. मैथुन, ५. सुख, ६. दु:ख, ७ मोह, ८. विचिकित्सा, ९ क्रोध, १० मान, ११ माया, १२. लोभ, १३. शोक, १४. लोक, १५. धर्म और १६. ओघ ।
इन वर्गीकरणों में प्रथम वर्गीकरण केवल शारीरिक प्रेरकों को प्रस्तुत करता है, जबकि अन्तिम वर्गीकरण में शारीरिक या जैविक (Biological), मानसिक एवं सामाजिक (Social) प्रेरकों का भी समावेश है । दूसरे एवं तीसरे वर्गीकरण में क्रोधादि कुछ कषायों एवं नोकषायों को भी संज्ञा के वर्गीकरण में समाविष्ट कर लिया गया है । संज्ञा और कषाय में अन्तर ठीक उसी आधार पर किया जा सकता है जिस आधार पर पाश्चात्य मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्ति और उसके संलग्न संवेग में किया जाता है । क्रोध की संज्ञा क्रोध कषाय से ठीक उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार आक्रामकता की मूलप्रवृत्ति से क्रोध का संवेग भिन्न है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर संज्ञा एवं मूलप्रवृत्तियों के वर्गीकरण में बहुत कुछ एकरूपता पायी जाती है ।
बौद्ध दर्शन के बावन चंत्तसिक धर्म बौद्ध दर्शन में कर्म - प्रेरकों के रूप में चैत्तसिक धर्म माने जा सकते हैं । सभी चैत्तसिक धर्म वे तथ्य हैं जो चित की प्रवृत्ति के हेतु हैं ।
१. समवायांग, ४|४ २. प्रज्ञापना पद, ८ ३. अभिधान राजेन्द्र खण्ड ७, पृ० ३०१ ४. अभिधम्मत्थसंग हो - चैत्तिसिक संग्रह विभाग, पृ० १०-३१
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