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जैन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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वासना आचरण का प्रेरक सूत्र - वासना, कामना, तृष्णा या संकल्प ही सभी नैतिक विवेचना की परिसीमा में आनेवाले व्यवहारों के मूल में निहित है, इसी से उनका उद्भव होता है; अतः इसे नैतिकता की परिसीमा में आने वाले कर्मों का प्रेरक तथ्य भी कहा जा सकता है । बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि यह पुरुष कामनाभय है', व्यक्ति की जैसी कामनाएँ होती हैं वैसा उसका चरित्र बनता है । व्यक्ति के समग्र भूत, वर्तमान एवं भविष्यकालिक कर्म, जिनसे उसका चरित्र बनता है, काम से ही प्रवृत्त होते हैं ओर उसी में उनका निवर्तन होता है । व्यक्ति क्यों दुष्कर्मों या अनाचार में प्रवृत्त होता है, यह आचार-दर्शन का एक गम्भीर प्रश्न है । समालोच्य आचार-दर्शनों ने इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया है ।
जैन दृष्टिकोण - जैन-दर्शन में राग और द्वेष ये दो कर्म - बीज या कर्ममय जीवन के प्रेरकसूत्र माने गये हैं । इनमें भी राग ही प्रमुख है । आचारांगसूत्र में कहा गया है कि काम में जो आसक्ति है वह कर्म का प्रेरक तथ्य है । सम्पूर्ण जगत् में जो कायिक वाचिक और मानसिक कर्म (दुःख) है, वह काम-भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न होता है ।" जैन दर्शन के अनुसार यह कामवासना या रागभाव जो कि पूर्व कर्म-संस्कारों के कारण उत्पन्न होता है, प्राणी के व्यवहार का प्रेरक सूत्र है । पूर्व कर्म - संस्कारों से रागादि के संकल्प होते हैं और उनसे ही कर्म की परम्परा बढ़ती है ।
बौद्ध दृष्टिकोण -- बौद्ध दर्शन में कर्म-प्रेरक के रूप में काम, तृष्णा, इच्छा (छन्द)
भगवान् बुद्ध कहते हैं कि
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एवं राग माने गये हैं, जो वस्तुतः एक ही अर्थ के बोधक हैं । तृष्णा से युक्त होकर प्राणी बन्धन में पड़े हुए खरगोश की भाँति संसार परिभ्रमण करता रहता है । काम से ही समस्त शोक और भय उत्पन्न होते हैं । " अंगुत्तरनिकाय में कर्मों की उत्पत्ति के कारण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि भूत, भविष्य और वर्तमान के छन्द-राग-स्थानीय विषयों को लेकर जो छन्द ( इच्छा) उत्पन्न होता है, वही कर्मों को उत्पत्ति का हेतु है ।" इस प्रकार भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान काल के विषयों के सम्बन्ध में जो इच्छा है, वही कर्मों को उत्पत्ति का कारण है । वैसे इन तीनों को अशुभ कर्मों की और अलोभ, उत्पत्ति का हेतु भी कहा है । बौद्ध दर्शन ने इस कि वासना की उत्पत्ति का कारण क्या है ?
भगवान् बुद्ध ने लोभ, द्वेष और मोह अद्वेष और अमोह को शुभ कर्मों की तथ्य को भी समझने का प्रयास किया
१. बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/४/५ ३. उत्तराध्ययन, ३२/७
४. आचारांग १।३।२ ६. धम्मपद, ३४३ ८. अंगुत्तरनिकाय, ३।१०९
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२. शिवपुराण उद्धृत - अध्यात्मयोग और चित्त - विकलन, पृ० १२४
५. उत्तराध्ययन, ३२।१९ ७. वही, २१५
९. वही, ३।१०७
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