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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
संकल्पयुक्त कर्म ही को नैतिक विवेचन का विषय बनाते हैं । किन्तु उससे आगे बढ़कर के मात्र कामना या इच्छा को भी नैतिक विवेचना का विषय बनाते हैं । उनके अनुसार अक्रियान्वित इच्छा एवं संकल्प भी नैतिक विवेचन का महत्त्वपूर्ण विषय है । नैतिकता की सीमा में आने वाले संकल्पयुक्त कर्म के मूल में इच्छा या कामना का तत्त्व रहा हुआ हैं, जिससे समग्र व्यवहार होता है । अतः यह विचार करना आवश्यक है कि यह कामना और इच्छा क्या है ? कैसे उत्पन्न होती है ? और किस प्रकार हमारे व्यवहार को प्रेरित करती है ?
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प्राणीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व
वासना का उद्भव तथा विकास - वासना, कामना या इच्छा से ही समग्र व्यवहार का उद्भव होता है । यह वासना, कामना या इच्छा से प्रसूत समस्त व्यवहार ही नैतिक विवेचन का विषय है । स्मरण रखना चाहिए कि समालोच्य आचार- दर्शनों में वासना, कामना, कामगुण, इच्छा, आशा, लोभ, तृष्णा और आसक्ति समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ मन और इन्द्रियों की अपने विषयों की चाह से है । पाश्चात्य आचार-दर्शन में जीववृति ( Want ), क्षुधा (Appetite), इच्छा ( Desire ), अभिलाषा ( Wish ) और संकल्प (Will) में अर्थ वैभिन्य एवं क्रम माना गया है । पाश्चात्यों के अनुसार इस सम्पूर्ण क्रम में चेतना की स्पष्टता के आधार पर विभेद किया जा सकता है । जीववृत्ति चेतना के निम्नतम स्तर वनस्पति जगत् में भी पायी जाती है, पशुजगत् में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा का भी योग होता है लेकिन चेतना के मानवीय स्तर पर आकर तो जीववृत्ति से संकल्प तक के सारे ही तत्त्व उपलब्ध होते हैं । वस्तुतः जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में वासना के मूलतत्त्व की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, अन्तर है केवल चेतना में उसके स्पष्ट बोध का । यही कारण है कि भारतीय दर्शनों में इस क्रम के सम्बन्ध में कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता । भारतीय साहित्य में वासना, कामना, तृष्णा और इच्छा आदि शब्द तो अवश्य मिलते हैं और उनमें वासना की तीव्रता की दृष्टि से अन्तर भी किया जा सकता है, फिर भी साधारणतया उनका समान अर्थ में ही प्रयोग हुआ है । भारतीय दर्शन में तीव्रता के तारतम्य की दृष्टि से वासना, कामना, तृष्णा और इच्छा में एक क्रम माना जा सकता है । हमें यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पाश्चात्य विचारक जहाँ वासना के उस रूप को, जिसे वे संकल्प ( will) कहते हैं नैतिक निर्णय का विषय बनाते हैं, वहाँ भारतीय चिन्तन में वासना के अन्य रूप भी नैतिकता की परिसीमा में आ जाते हैं । चेतना में वासना के स्पष्ट बोध का अभाव वासना का अभाव नहीं है और इसलिए जैन और बौद्ध विचारणा ने पशु-जगत् आदि चेतना के निम्न स्तरों को भी नैतिकता की परिसीमा में माना है । वहाँ पाशविक स्तर पर पायी जानेवाली वासना की अन्धः प्रवृत्ति को भी नैतिक निर्णयों का विषय माना गया है।
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