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________________ जैन आचारवर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष ४५९ ____ जैन आचार-दर्शन में नैतिक निर्णय की दृष्टि से क्रियाएँ दो प्रकार की मानी गयी है-१. साम्परायिक और २. ईर्यापथिक । साम्परायिक क्रियाएँ वे हैं जो राग-द्वेष मूलक, मानसिक संकल्पों एवं प्रमाद सहित होती हैं । साम्परायिक क्रियाएँ ही नैतिक निर्णय का विषय हैं । इनके विपरीत जो क्रियाएँ राग-द्वेष मूलक मानसिक संकल्पों से रहित होकर विवेकपूर्वक एवं अप्रमत्तभाव से सम्पादित होती हैं, ईपिथिक कही जाती हैं । ये अतिनैतिक (Amoral) होती हैं । क्रियाओं के सामान्य वर्गीकरण की दृष्टि से जैन-दर्शन में क्रियाएँ तीन प्रकार की हैं-१. मानसिक, २. वाचिक और ३. शारीरिक । क्रियाओं के तीन स्तर होते हैं, जिनमें होकर वे पूर्ण होती हैं-१. सरम्भ, २. समारम्भ और आरम्भ'। सरम्भ क्रिया का मानसिक स्तर है, यह प्राथमिक स्थिति है, इसमें मन में क्रिया का विचार उत्पन्न होता है। समारम्भ क्रिया का वह स्तर है, जिसमें क्रिया की दिशा में प्रथम प्रयास होते हैं, लेकिन क्रिया पूर्ण नहीं होती है । आरम्भ क्रिया के सम्पन्न होने की अवस्था है । यह विश्लेषण हमें यह बताता है कि क्रिया का मूल उसके मानसिक स्तर पर है, वही क्रिया का मूल स्रोत है और इसलिए क्रिया के सम्बन्ध में नैतिक दृष्टि से विचार करने पर वही महत्त्वपूर्ण होता है। बौद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध-दर्शन को भी यह स्वीकार है कि अनैच्छिक या तृष्णारहित कर्म बन्धनकारक नहीं होते, तृष्णासहित कर्म ही बन्धनकारक होते हैं। वह यह भी स्वीकार करता है कि अनिवार्य शारीरिक कर्मों के प्रति भी जिसकी चेतना जागृत है उस स्मृतिमान व्यक्ति के चित्तमल नष्ट हो जाते हैं, उसे आस्रव नहीं होता है। जैसे सामान्यजन, वैसे अहंत भी दानादि पुण्यकर्म करते ही हैं, किन्तु उनके वे कर्म कुशलकर्म नहीं होते, किसलिये ? विपाक न होने से। वे जो भी कुशल करते हैं, वह क्रिया मात्र होता है, उसका 'विपाक' नहीं होता। गोता का दृष्टिकोण-गीता में अर्जुन ने यह प्रश्न उठाया है कि नैतिक दृष्टि से आदर्श पुरुष के जीवन का सामान्य व्यवहार कैसा होता है और उसका उसके नैतिक जीवन पर क्या प्रभाव होता है ? गीता में भी जैन-दर्शन के समान इसी विचार का समर्थन है कि कामना रहित होकर अनेक क्रियाओं को सम्पादित करनेवाला शान्ति प्राप्त करता है । जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और आसक्ति का त्याग कर कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है। जिसने अन्तःकरण और शरीर जीत लिया है तथा सम्पूर्ण भोगों की सामग्री को त्याग दिया है ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता। निष्कर्ष-इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन १. उत्तराध्ययन, २४।२१-२५ २. धम्मपद, २९२-२९३ ३. अभिधम्मत्थसंगहो, पृ० १० ४. गीता, २।२४, २।२१; २०७१ ५. वही, ४।२०-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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