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________________ ४५८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन समाधान दिया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । वह कहता है, जीवन की इन सामान्य क्रियाओं को यदि विवेकपूर्वक सम्पादित किया जाता है तो वे पाप-बन्ध का कारण नहीं हैं। क्रियाएँ अनैतिक नहीं होतीं, उनके पीछे जो राग-दृष्टि है, प्रमत्तता है या विवेकाभाव है, वही अशुभ या बन्धन है। क्रियाओं के विषय में नैतिक दृष्टिकोण का यही सार है। जैन-दर्शन के अनुसार मात्र वे अनैच्छिक कर्म जो ज्ञानपूर्वक सम्पादित नहीं किए जाते हैं अर्थात् जिनके पीछे साधक की जागरूकता का अभाव है, नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं । यदि साधक पूर्णतः जाग्रत है तो उसके आहार-विहार आदि अनैच्छिक एवं स्वाभाविक कर्म, नैतिक निर्णय का विषय नहीं बनते । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि केवली (जीवन्मुक्त) का बैठना, उठना आदि कर्म अनैच्छिक होते हैं, अतः वे बन्धन का कारण नहीं होते हैं, लेकिन मोहयुक्त व्यक्ति के वे ही स्वाभाविक अनैच्छिक कर्म बन्धन का कारण होते हैं । जैन विचारक केवल उन अनैच्छिक एवं स्वाभाविक कर्मों को नैतिक दृष्टि से शुभाशुभ के क्षेत्र में नहीं मानते जो विवेकपूर्ण सम्पादित हों और जिनमें कर्ता का रागभाव न हो । जैन-दृष्टि में अनैच्छिक एवं अनिवार्य शारीरिक कर्म वे हैं जिनका करना शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक है । इन्हें छोड़कर शेष सभी कर्म बन्धन का कारण होते हैं, इसलिए वे नैतिकता के क्षेत्र में भी आते हैं । ___ आधुनिक नीति-विज्ञान ऐच्छिक कर्म में भावना, कामना, विमर्श, चयन और कार्यान्वयन ऐसे पाँच अंग मानता है और इनमें से किसी एक के अभाव में भी ऐच्छिक कर्म को अधूरा माना जाता है । जैन-विचार में ऐसा विवेचन देखने में नहीं आया फिर भी नियमसार में कर्म के बन्धन की चर्चा में ईहापूर्वक और परिणामपूर्वक ऐसे दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस आधार पर सम्भवतः यह माना जा सकता है कि परिणामपूर्वक कर्म वे हैं जिनमें कामना का क्रियान्वयन विमर्श एवं चयन के बाद होता है तथा ईहापूर्वक कर्म वे हैं जिनमें कामना के तत्काल बाद ही क्रियान्वयन हो जाता है उनमें विमर्श और चयन का अभाव होता है। परिणामपूर्वक कर्म ईहापूर्वक से भिन्न है । ईहापूर्वक कर्म में फल का विचार नहीं होता, मात्र वासना या इच्छा ही कर्म प्रेरक होती है । जैन आचार-दर्शन उपर्युक्त विमर्शपूर्वक सम्पादित कर्म और मात्र वासना प्रेरित कर्म, दोनों का ही शुभाशुभत्व की दृष्टि से विचार करता है । नियमसार में कहा है कि वचन आदि क्रियाएँ यदि फल के संकल्पपूर्वक की जाती हैं तो वे शुभाशुभ बन्धन का कारण होती हैं लेकिन फल के संकल्पपूर्वक नहीं की जाती हैं तो उनसे कोई बन्धन नहीं होता। इसी प्रकार वचन आदि क्रियाएँ इच्छापूर्वक की जाती हैं तो बन्धन का कारण हैं, इच्छा रहित हैं तो बन्धन का कारण नहीं हैं । १. दशवकालिक, ४८ २. नियमसार, १७४ ३. वही, १७२-१७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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