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________________ भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप सिद्धान्त उस अभिरुचि को सुधारने में सहायक भी हो सकता है ।"" ग्रीक दार्शनिक अरस्तू एवं कुछ मध्यकालीन विचारक एवं स्वयं मैकेंजी भी इस मत को ठीक मानते हैं । प्रारम्भिक बौद्ध-दर्शन एवं जैन दर्शन नैतिकता के प्रति शुद्ध व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाकर ही आगे बढ़े थे, यद्यपि इसके बाद दार्शनिक जटिलताओं ने उन्हें भी इस समन्वयवादी धारणा में लाकर खड़ा कर दिया है । फिर भी इतना निश्चित है कि किसी भी भारतीय परम्परा ने अपने आचारविज्ञान की विवेचना को जीवन के व्यावहारिक पक्ष से पूर्णतः असम्बन्धित मानने का प्रयत्न नहीं किया । जैन विचारकों के अनुसार नीतिशास्त्र का सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से है । एक ओर, उत्तराध्ययन और दशवैकालिकसूत्र में ज्ञान या सैद्धान्तिक अध्ययन को व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है; किन्तु दूसरी ओर, इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया है कि सैद्धान्तिक अध्ययन मात्र से ही जीवन की व्यावहारिक गुत्थी पूरी तरह सुलझती नहीं । आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि मात्र ज्ञान से कार्य की निष्पत्ति नहीं हो जाती है । जैसे तैरना जाननेवाला व्यक्ति भी तैरने की क्रिया न करने पर डूब जाता है, उसी प्रकार जो साधक आचरणशील नहीं है वह बहुत-से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार समुद्र में डूब जाता है । 3 आचार्य सैद्धान्तिक अध्ययन की तुलना दीपक से और व्यावहारिक विवेक की तुलना आँख से करते हुए कहते हैं, “शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी किस काम का ? क्या करोड़ों दीपक जला देने से भी अन्धे को कोई प्रकाश मिल सकता है ? शास्त्र का थोड़ा-सा अध्ययन भी आचरणशील साधक के लिए उपयोगी होता है; जैसे, जिसकी आँख खुली है उसके लिए एक दीपक का प्रकाश भी पर्याप्त है ।' इस प्रकार जैन दृष्टि के अनुसार सैद्धान्तिक अध्ययन हमारे व्यावहारिक जीवन के लिए मात्र दिशा-निर्देशक है । नैतिक विवेचनाएँ प्रत्यक्ष रूप से व्यावहारिक नहीं हैं, लेकिन वे जीवन के आदर्श को स्पष्ट कर आचरण का मार्ग प्रशस्त करती हैं । हमारे व्यवहार पर उनका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार आँख के लिए प्रकाश और प्रकाश के लिए आँख आवश्यक है, उसी प्रकार सिद्धान्त के लिए व्यवहार और व्यवहार के लिए सिद्धान्त आवश्यक है । दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही जीवन के आदर्श की दिशा में बढ़ा जा सकता है । ४ । पाश्चात्य परम्परा में रेशडाल और मूर भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं । रेशडाल का कथन है कि नीतिशास्त्र के व्यावहारिक मूल्य पर अविश्वास करना उन लोगों के लिए भी कठिन है जो इसके अव्यावहारिक स्वरूप को प्रकट करने में १. नीतिप्रवेशिका, पृ० २२३. २. आवश्यक नियुक्ति ११५१. ३. वही, ११५४. ४. वही, ९८ - ९९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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