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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन लाभ है ? क्या नैतिक सिद्धान्तों का अध्ययन हमारे व्यावहारिक जीवन को प्रभावित कर सकता है ? एक ओर, महाभारत स्पष्ट कहता है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती।' जैनागम सूत्रकृतांग में भी कहा गया कि जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति प्रकाश होते हुए भी नेत्रहीन होने कारण कुछ भी नहीं देख पाता, उसी प्रकार कुछ प्रमत्त मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सम्यक् आचरण नहीं कर पाते । २ किन्तु दूसरी ओर, जैन दर्शन और गीता यह भी स्वीकार करते हैं कि नैतिकता का सैद्धान्तिक अध्ययन व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक है । गीता के अन्तिम अध्याय में गीता के पठन और श्रवण का महत्त्व इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर बताया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञानसम्पन्न होकर आत्मा विनय, तप
और सच्चरित्रता को प्राप्त करता है। इस प्रश्न को लेकर कि 'नीतिशास्त्र का व्यावहारिक जीवन से क्या सम्बन्ध है' पाश्चात्य विचारकों के तीन दृष्टिकोण हैं
१. विशुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टिकोण-इस दृष्टिकोण के अनुसार नैतिक सिद्धान्तों के अध्ययन का हमारे व्यावहारिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है । नैतिक सिद्धान्त मात्र व्याख्याएँ हैं, वे यह बताते हैं कि आदर्श के सम्बन्ध में मानवीय प्रकृति क्या है ? उसे कैसी होना चाहिए, इस बात से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। नैतिक नियम आदेश नहीं, मानवीय प्रकृति की आदर्श के सम्बन्ध में व्याख्या है। स्पिनोजा इस वर्ग के प्रमुख प्रतिनिधि हैं । आधुनिक विचारकों में बोसांके और ब्रडले को भी इसी परम्परा का माना जाता है । आचारदर्शन की सहज ज्ञानवादी परम्परा भी यह मानती है कि शुभाशुभ का विवेक स्वतः हो जाता है, अतः आचारदर्शन का सैद्धान्तिक अध्ययन व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं है।
२. विशुद्ध व्यावहारिक दृष्टिकोण-इसके अनुसार नैतिक विवेचनाओं का सीधा सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से ही है। पाश्चात्य दर्शन में अरस्तू के पूर्ववर्ती सभी विचारक, स्टोइक, सुखवादी, उपयोगितावादी, विकासवादी आदि इसी वर्ग में आते हैं।
३. समन्वयवादी दृष्टिकोण-इस मान्यता के अनुसार नैतिक विवेचना का सीधा सम्बन्ध व्यावहारिक जीवन से नहीं है, फिर भी उसका प्रभाव व्यावहारिक जीवन पर पड़ता है और वह जीवन के आदर्श को हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है, जिससे उस आदर्श की ओर गति की जा सके। सिद्धान्त और व्यवहार अलगअलग होते हुए भी परस्पर सम्बन्धित हैं। मैकेंजी लिखते हैं, “एक बुरा सिद्धान्त कभी-कभी एक पीढ़ी की अभिरुचि को विकृत कर देता है, जबकि एक अच्छा १. महाभारत, उद्धृत-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३६०. २. सूत्रकृतांग, १।१२।८. ३. गीता, १८१६८-७१. ४. उत्तराध्ययन, २९।५९.
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