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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन किसी दिन उपास्य बन सकता है। जहां तक महायान सम्प्रदाय का प्रश्न है उसमें बुद्ध के सम्भोगकाय और निर्माणकाय उपास्य रहे हैं, लेकिन वे ऐसे उपास्य हैं जो अपने उपासक का मंगल भी करते हैं ।
गीता में उपास्य के रूप में वैयक्तिक ईश्वर की धारणा स्वीकृत रही है । श्रीकृष्ण स्वयं ही अपने को उपास्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं और लोगों से अपनी उपासना की अपेक्षा भी करते हैं । गीता का उपास्य अपने भक्त का उद्धारक भी है। यदि भक्त अपने को निश्छल रूप में उसके सामने प्रस्तुत कर देता है तो वह उसकी मुक्ति की जिम्मेदारी भी वहन करता है ।
ईश्वर मल्यों के अधिष्ठान के रूप में वर्तमान युग में ईश्वर सम्बन्धी विचार ने एक नई दिशा ग्रहण की है। प्राचीन युग एवं मध्य युग तक ईश्वर का प्रत्यय जगत् के तात्त्विक आधार के रूप में, उसके निर्माता एवं नियामक के रूप में अथवा धार्मिक श्रद्धा के केन्द्र एवं उपास्य के रूप में विवेचित होता रहा, लेकिन वर्तमान युग में ईश्वर-सम्बन्धी विचार प्रमुख रूप से नैतिक आधारों पर विकसित हुआ है । वर्तमान युग में ईश्वर परममूल्यों का अधिष्ठान और उनका स्रोत माना जाता है। कांट ने ईश्वर के अस्तित्व के सन्दर्भ में नैतिक तर्क प्रस्तुत किये हैं। कांट का तर्क है कि एक सर्वोच्च सत्ता अथवा ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा, जो धर्म को सुख से पुरस्कृत कर सके तथा बुराई को दुःख द्वारा किसी अगले जीवन में दण्डित कर सके । मार्टिन्यू नैतिक बाध्यता और नैतिक आदर्श के आधार पर ईश्वर के प्रत्यय को खड़ा करता है। उसकी दृष्टि में नैतिक बाध्यता ईश्वर के आधार पर ही आ सकती है । ईश्वर ही नैतिक बाध्यता का स्रोत है। मार्टिन्यू नैतिक आदर्श से भी ईश्वर के अस्तित्व का निष्कर्ष निकालता है। उसका तर्क है कि क्या नैतिक आदर्श केवल आदर्श है, वास्तविक नहीं ? यदि वह वास्तविक नहीं है तो उससे हमारे चरित्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेकिन नैतिक आदर्श का प्रभाव हमारे चरित्र पर पड़ता है। वह हमें श्रद्धाभिभूत कर सकता है और हमें ऊँचा उठा सकता है। इसलिए वह वास्तविक है और ईश्वर हमारे नैतिक आदर्श का अमर मूर्तरूप है, जिसका हमारी नैतिक चेतना में अस्पष्ट प्रतिबिम्ब है।
मुनस्टर बर्ग, रायस और प्रिंगल-पैटीसन ईश्वर को मूल्यों के अधिष्ठान के रूप में देखते हैं। मुनस्टर बर्ग मूल्यों का अधिष्ठान परमात्मा को मानता है। उसके विचार में साध्यों का अनुसरण अगर अचेतन रूप से होता है, तो वे साध्य ही नहीं हैं। इसलिए परमात्मा को चेतन और बुद्धियुक्त मानना पड़ेगा और यह मानना पड़ेगा कि ताकिक, सौन्दर्यात्मक, नैतिक और धार्मिक मूल्य परमात्मा में निवास करते हैं । मूल्य
१. देखिए-पश्चिमी दर्शन, पृ० २४८-२४९
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