SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिकता, धर्म और ईश्वर ४४९ ईश्वर के अन्दर पहले से ही परिनिष्पन्न हैं और ईश्वर सत्य, शिव, सौन्दर्य, न्याय, शील और प्रेम की शाश्वत प्रतिमा है जो विश्व में व्याप्त है और मनुष्य को एक अच्छी विश्व-व्यवस्था का निर्माण करने के लिए प्रेरणा देता है। प्रिंगल पैटीसन का कथन है कि सत्य, शुभत्व और सौन्दर्य स्वयभू नहीं हैं। चेतन अनुभव के बाहर वे कोई अर्थ नहीं रखते । इसलिए हमें एक ऐसी आदि बुद्धि को मानना पड़ता है जिससे वे नित्य-निष्पन्न हों। ईश्वर स्वयं सर्वोच्च सत्ता और सर्वोच्च मूल्य है । समकालीन विचारक डब्ल्यू० आर० साली नैतिकता एवं नैतिक मूल्यों को ईश्वर में अधिष्ठित मानते हैं। उनका कथन है कि धर्म केवल सामान्य नैतिकता का पूरक नहीं है। वह उसे और कुछ अधिक देता है। वह मनुष्य की दृष्टि को, इस विषय में पैनी बनाता है कि शुभ क्या है ? नैतिक नियम और नैतिक आदर्श ईश्वरीय प्रकृति में निवास करते हैं और ईश्वरीय पूर्णता में कुछ रूपों में उनका साक्षात्कार होता है। ईश्वरीय इच्छा केवल नैतिक आदेश नहीं है, जैसाकि धार्मिक अनुमोदन के सिद्धान्त उसे स्वीकार करते हैं । लेकिन वह एक उच्चतम शुभत्व है । नैतिक पूर्णता ईश्वर के समान बनने में उपलब्ध होती है। नैतिक मूल्य सन्तोषप्रद रूप में ईश्वरवाद में अधिष्ठित हैं। इस प्रकार समकालीन विचारक ईश्वर को मूल्यों के अधिष्ठान के रूप में देखते हैं । जहाँ तक इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण का सवाल है, जैन दार्शनिकों ने ज्ञान, भाव, आनन्द और शक्ति के रूप में चार मूल्य स्वीकार किए हैं। इसे अपनी वे पारिभाषिक शब्दावली में अनन्त चतुष्टय कहते हैं। जैन दर्शन के सिद्ध या ईश्वर में ये चारों गुण अपनी पूर्णता के साथ होते हैं और इस रूप में उसे मूल्यों का अधिष्ठान मान लिया गया है। - गीता के आचार-दर्शन में भी ईश्वर मूल्यों के अधिष्ठान के रूप में स्वीकृत रहा है। भारतीय परम्परा में ईश्वर को सत्, चित् और आनन्दमय माना गया है। सत् के रूप में ज्ञानात्मक, चित् के रूप में सौन्दर्यात्मक और आनन्द के रूप में वह नैतिक मूल्यों का अधिष्ठान है। ईश्वर को सत्य, शिव और सुन्दर भी कहा गया है और इस रूप में भी उसमें ताकिक, सौन्दर्यात्मक और नैतिक मूल्यों का निवास है । १. पश्चिमी दर्शन, पृ० २६७ २. दि आइडिया आफ इम्मार्टलिटी, पृ० २९० उद्धृत-पश्चिमी दर्शन, पृ० २६७ ३. कॅन्टेम्पररी एथिकल थ्योरीज़, पृ० २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy