________________
नैतिकता, धर्म और ईश्वर
३. सम्भोगकाय—सर्वभूतहितरत धर्मकाय जब पुरुषविद् (वैयक्तिक) होकर लोककल्याण करने लगता है, तब उसे सम्भोगकाय कहते हैं । जो कारित्र (कर्म) धर्मकाय का है वही इसका है । पर धर्मकाय अरूपी है, यह रूपवान् है । धर्मकाय अपुरुषविद् है,. यह पुरुषविद् है । धर्मकाय निराकार है, यह साकार है । धर्मकाय अव्यक्त है, यह व्यक्त है । इसकी तुलना गीता के वैयक्तिक ईश्वर से की जा सकती है ।
४. निर्माणकाय - जिन शाक्य मुनि बुद्ध का व्यक्त दर्शन हम करते हैं उसका नाम निर्माणकाय है । निर्माणकायों के द्वारा ही बुद्ध जगत् का बहुविध साधन (कल्याण) करते हैं । निर्माणकाय की तुलना गीता के ईश्वर के अवतार से हो सकती है ।
४४७
इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि हीनयान और महायान सम्प्रदायों में साधना का आदर्श बुद्धत्व रहा है तथापि दोनों ने अपने दृष्टिकोणों के आधार पर उसकी व्याख्या भिन्न रूप में की है। हीनयान ने उसके वीतराग और वीततृष्ण स्वरूप को स्वीकार किया, जबकि महायान ने उसके स्वरूप में लोकमंगल की उद्भावना की । हीनयान का दृष्टिकोण जैन परम्परा के निकट है जबकि महायान का दृष्टिकोण कुछ अर्थों में गीता के निकट है ।
उपास्य के रूप में ईश्वर - भारतीय नैतिक चिन्तन में धर्म और नैतिकता एक-दूसरे अभिन्न रहे हैं । धार्मिक जीवन में श्रद्धा के लिए किसी उपास्य की स्वीकृति आवश्यक है । जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं में उपास्य के रूप में ईश्वर का प्रत्यय स्वीकृत रहा है ।
जैन - परम्परा में उपास्य के रूप में अरिहंत और सिद्ध माने गये हैं । सिद्ध वे आत्माएँ हैं जो निर्वाण लाभ कर चुकी हैं, जबकि अरिहंत वे जीवन्मुक्त आत्माएँ हैं जो नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर इस जगत् में लोक-मंगल के लिए कार्य करती हैं । जैन परम्परा में अरिहंत और सिद्ध उपास्य अवश्य हैं, फिर भी वे गीता के ईश्वर से भिन्न हैं । गीता का ईश्वर सदैव ही उपास्य है जबकि अरिहंत और सिद्ध उपासक से उपास्य बने हैं । जहाँ तक करुणा का प्रश्न है, सिद्ध जो केवल उपासना के आदर्श हैं स्वयं अपनी
ओर से उपासक के लिए कुछ भी नहीं करते । उपासना के आदर्श के रूप में अरिहंत यद्यपि साधना - मार्ग का उपदेश करते हैं, फिर भी यह माना गया है कि साधक की जो भी उपलब्धि है, वह स्वयं उसके प्रयत्नों का फल है । उपास्य के स्वरूप का ज्ञान तथा उपासना अपने में निहित परमात्मत्व को प्रकट करने के लिए है ।
बौद्ध परम्परा में उपास्य के रूप में बुद्ध अथवा बुद्ध के सम्भोगकाय और धर्मकाय स्वीकृत हैं । हीनयान सम्प्रदाय बुद्ध को शाक्य मुनि के रूप में उपास्य अवश्य मानता है लेकिन वह जैन- परम्परा के समान यह मानता है कि उपासक स्वयं के प्रयत्नों से ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org