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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोका) और साधक में अभेद ही मानती है। द्रव्याथिकदृष्टि से साध्य और साधक दोनों एक ही हैं, यद्यपि पर्यायाथिक दृष्टि या व्यवहारनय से उनमें भेद है । आत्मा की स्वभाव दशा साध्य है और आत्मा को विभावपर्याय ही साधक है। विभाव से स्वभाव की ओर गति ही साधना है। गोता का दृष्टिकोण गीता में भी साध्य और साधक में अभेद माना गया है । गीता के अनुसार साधक जीवात्मा और साध्य परमात्मा दोनों में अभेद ही सिद्ध होता है, यद्यपि गीता के कुछ टीकाकार भिन्न मत भी रखते हैं । गीता के अनुसार नैतिक आदर्श या परम साध्य परमात्मा को उपलब्धि ही है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही अव्यय मोक्ष का, शाश्वत धर्म का और अनन्त सुख का मूल स्थान हूँ।' दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि 'यह जीवात्मा-जो कि साधक है, मेरा ही सनातन अंश हैं । २ इस प्रकार गीता के अनुसार अंश के रूप में जीवात्मा साधक है और अंशी के रूप में परमात्मा साध्य है। क्योंकि अंश और अंशी में तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं होता, इसलिए साधक जीवात्मा और साध्य परमात्मा में भी कोई भेद नहीं है। उनमें भेद मानना केवल व्यावहारिक बात है। साधना-पथ और साध्य-जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी प्रकार साधना-मार्ग और साध्य में भी अभेद है । जीवात्मा अपने ज्ञान, अनुभति और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है। उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना-पथ बन जाते हैं। यही जब अपनी पूर्णता को प्रकट कर लेते हैं तो साध्य बन जाते हैं । जैन आचार-दर्शन के अनुसार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप यह साधना-पथ है और जब ये सम्यक् चतुष्टय अनन्त-ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति को उपलब्ध कर लेते हैं तो वही अवस्था साध्य बन जाती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक चेतना का स्वरूप है वही सम्यक् बनकर साधनापथ बन जाता है और वही पूर्ण के रूप में साध्य होता है । साधनापथ और साध्य दोनों ही आत्मा की अवस्थाएँ हैं । आत्मा की सम्यक् अवस्था साधना-पथ है और पूर्ण अवस्था साध्य है। गीता के अनुसार भी साधना मार्ग के रूप में जिन सद्गुणों का विवेचन उपलब्ध है, उन्हें परमात्मा की ही विभूति माना गया है । यदि साधक आत्मा परमात्मा का १. गीता. १४।२७ २. वही, १५।७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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