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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बताते हुए लिखते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करनेवाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है ।" मुनि न्यायविजय जी लिखते हैं कि "आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है । जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियोंके वशीभूत है, संसार हैं और उनको ही जब अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जाता है ।" इस प्रकार नैतिक साध्य और साधक दोनों ही आत्मा हैं । दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषयों और कषायों के वशीभूत रहता है, तब तक साधक होता है और जब उन पर विजय पा लेता है तब वही साध्य बन जाता है । आत्मा की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती है और विशुद्ध आत्म-तत्त्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है । ४३२ । जैन आचार-दर्शन में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की अपूर्ण अवस्था ही साधक अवस्था है और आत्मा की पूर्ण अवस्था ही साध्य है । जैन नैतिक-साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही स्वरूप है । उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है । साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं, वरन् उसके अन्दर ही है । साधक को उसे पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो वह जाता है जो व्यक्ति के भीतर नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो । नैतिक साध्य बाह्य उपलब्धि नहीं, आन्तरिक उपलब्धि है । दूसरे शब्दों में वह निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित हैं साधक को केवल उन्हें प्रकट करना है । हमारी मूलभूत क्षमताएँ साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में वही हैं । साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है । जैसे बीज वृक्ष के रूप में प्रकट होता है, वैसे ही आत्मा के निज गुण पूर्णरूप में प्रकट हो जाते हैं । साधक आत्मा के ज्ञान, भाव (अनुभूति), और संकल्प के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं । वह आत्मा जो कषाय और योग से युक्त है और इस कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, साधक है और वही आत्मा अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति के रूप में साध्य है । उपाध्याय अमरमुनिजी कहते हैं कि जैन साधना स्व में स्व को उपलब्ध करना है, निज में जिनत्व की शोध करना है, अन्तस् में पूर्णरूपेण रममाण होना है, आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा तात्त्विक दृष्टि से साध्य १. योगशास्त्र, ४/५ Jain Education International २. अध्यात्मतत्त्वालोक, ४१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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