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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) आत्मतत्त्व सनातन है जो प्राणियों में चेतना (ज्ञान पर्यायों) के रूप में प्रकट होते हुए भी उन प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों (चेतन अवस्थाओं) के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है । उसी आत्मा को अक्षर और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परमगति भी कहते हैं, वही परमधाम भी हैं, वही मेरा परमात्मस्वरूप या आत्मा का निजस्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता ।"" " उसे अक्षर, ब्रह्म, परमतत्त्व, स्वभाव ( आत्मा की स्वभावदशा) और अध्यात्म भी कहा जाता है ( ८1३) 1" गीता की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है, परमशान्ति का अधिस्थान है । जैन दर्शन की भाँति गीता भो यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है । गीता के अनुसार " मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अत्यन्त सुख (अनन्तसौख्य) का अनुभव करता है ।" यद्यपि गोता एवं जैन दर्शन में "मुक्तात्मा में जिस सुख की कल्पना की गयी है, वह न ऐन्द्रिय सुख है, न वह मात्र दुःखाभावरूप सुख है, वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है ।" निष्कर्ष- - इस प्रकार हम देखते हैं कि सामान्यतया भारतीय दर्शन में मोक्ष या निर्वाण का प्रत्यय नैतिक जीवन का साध्य रहा है और नैतिक साध्य सम्बन्धी अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता है । राग और द्वेष के प्रहाण के रूप में वह पूर्ण चैत्त सिक समत्व की अवस्था है । इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्वों का उसमें पूर्ण अभाव होने से वह परम शान्ति है । तृष्णा और वेदनाजन्य दुःखों का पूर्ण अभाव होने से वह परम आनन्द है । जन्ममरण के चक्र से मुक्ति के रूप में वह अमृतपद है । मोह या अज्ञान की पूर्ण निवृत्ति के रूप में वह निरपेक्ष ज्ञान की अवस्था है | चेतना की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक शक्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति एवं उनके पूर्ण सामञ्जस्य के रूप में वह आत्मपूर्णता एवं आत्मसाक्षात्कार है । इस प्रकार पाश्चात्य आचार दर्शनों में नैतिक साध्य के रूप में जिन विभिन्न तथ्यों की चर्चा की गयी है, वे सभी समवेत रूप में मोक्ष की भारतीय धारणा में उपस्थित हैं । $ १२. साध्य, साधक और साधना पथ का पारस्परिक सम्बन्ध साध्य ओर साधक जैन आचार - दर्शन में साध्य (मोक्ष) और साधक में अभेद ही माना गया है । समयसारटीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि पर द्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है । " आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद १. गीता, ८ २०-२१ ३. वही, ६।२८ ५. समयसार टीका, ३०५ तुलनीय योगसूत्र, १३ २. वही, ६।१५ ४. वही, ६।२१ Jain Education International ४३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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