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________________ ४३० जैन, बौद्ध तथा गोता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन होती है। लेकिन यही आत्म-दृष्टि, 'स्व' का 'पर' में अवस्थित होना, रागभाव एवं तृष्णा की वृत्ति बन्धन है । जो तृष्णा है, वही राग है और जो राग है, वही अपनापन है । निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अत्ता) भी नहीं होता। बौद्ध-निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इस अपनेपन का अभाव है, तत्त्व का अभाव नहीं है । वस्तुतः तत्त्व-लक्षण की दृष्टि से निर्वाण भावात्मक अवस्था है। वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है। अतः प्रो० कीथ और नलिनाक्षदत्त की यह मान्यता कि बौद्ध-निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचार दृष्टि के निकट ही है । यद्यपि बौद्ध-निर्वाण भावात्मक है, तथापि भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिए प्रतिपक्ष अनिवार्य है, जबकि निर्वाण तो पक्षातिक्रांत है। निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिए प्रतिपक्ष आवश्यक नहीं। अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचनाशैली ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है। वस्तुतः तो निर्वाण अनिर्वचनीय है। ६११. गीता में मोक्ष का स्वरूप-गीता में भी नैतिक साधना का लक्ष्य है परमतत्त्व, ब्रह्म, अक्षरपुरुष अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति । गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्यय-पद, परमपद, परमगति और परमधाम कहता है । जैन एवं बौद्ध विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्ममरण की प्रक्रिया से युक्त है, जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का साधक यही प्रेरणा लेकर आगे बढ़ता है (जरामरणमोक्षाय ७.२९) और कहता है “जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है, उस परम पद की गवेषणा करना चाहिए।"' गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करते हुए यही कहता है कि "जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में आना नहीं होता, वही मेरा परमधाम (स्वस्थान) है। परमसिद्धि को प्राप्त हुए महात्मा जन मेरे को प्राप्त होकर, दुःखों के घर, इस अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते हैं । ब्रह्मलोक पर्यन्त समग्र जगत् पुनरावृत्ति-युक्त है। लेकिन जो भी मुझे प्राप्त कर लेता है, उसका पुनजन्म नहीं होता ।"२ मोक्ष के अनावृत्तिरूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है, "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्त्व है जो सभी प्राणियों में रहते हुए भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना-पर्यायों में जो अव्यक्त है उनसे भी परे उनका आधारभूत आस्मतत्त्व है। चेतना की अवस्थाएँ नश्वर हैं, लेकिन उनसे परे रहनेवाला यह १. गीता, १५।४ २. वही ८।१५-२०, १५।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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