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________________ नैतिक जीवन का साध्य (मोक्ष) ४२९ हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं "जहाँ न पवन बहता है, न चन्द्र, सूर्य प्रकाशित होते हैं । जहाँ जाने पर पुनः इस संसार में आया नहीं जाता । वहीं मेरा (आत्मा का) परमधाम (स्वस्थान) है।" बौद्ध-निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध-दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं । १. निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह तृतीय आर्य-सत्य कैसे होता ? क्योंकि अभाव आर्यचित्त का आलम्बन नहीं हो सकता। २. यदि तृतीय आर्य-सत्य का विषय द्रव्य सत्य नहीं है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा? ३. यदि निर्वाण मात्र अभाव है तो उच्छेददृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी। लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेददृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहा है । ४. महायान की धर्मकाय की अवधारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलयविज्ञान की अवधारणा निर्वाण की अभावात्मक व्याख्या के विपरीत पड़ती हैं । अतः निर्वाण का तात्त्विक स्वरूप 'अभाव' सिद्ध नहीं होता । उसे अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है । लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव अभाव मात्र है, फिर भी सद्भूत है, उसे आरोग्य कहते हैं । उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सद्भूत है, उसे सुख कहा जाता है । दूसरे, उसे अभाव इसलिए भी कहा जाता है कि साधक में शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न न हो । राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता । इसी से उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग का, अहं का पूर्ण विगलन है, लेकिन अहं या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कह सकते । निर्वाण की अभावात्मक कल्पना 'अनत्त' का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है । बौद्धदर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्त्व) का अभाव नहीं बताता, वरन् यह बताता है कि जगत् में अपना या मेरा कोई नहीं है । अनात्म का उपदेश आसक्ति के प्रहाण के लिए, तृष्णा के क्षय के लिए है । निर्वाण तत्त्व का अभाव नहीं, वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है । अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके । सभी अनात्म हैं, इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ मेरापन (आत्मभाव) आता है-वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है । 'स्व' की 'पर' में अवस्थिति होती है । आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पन्न १. गीता, १५।६ २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४६४-४६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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