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________________ ४२८ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन लेकिन दीप-शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता । आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमार्ग में कहते हैं कि निर्वाण का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है ।' प्रो० कीथ एवं प्रो० नलिनाक्षदत्त अग्गिवच्छगोत्तसुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है, वरन् अस्तित्व की रहस्यमय एवं अवर्णनीय अवस्था है। प्रो० कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं, वरन् चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रो० नलिनाक्षदत्त के शब्दों में निर्वाण की अग्नि-शिखा के बुझ जाने से की जानेवाली तुलना समुचित है, क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके अनस्तित्व से न होकर उसका स्वाभाविक, शुद्ध, अदृश्य, अव्यक्त अवस्था में चला जाना है, जिसमें कि वह अपने दृश्य-प्रकटन के पूर्व थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है।२ मिलिन्दप्रश्न के अनुसार भी निर्वाणधातु अस्ति-धर्म (अस्थिधम्म), एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है । उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता, किन्तु गुणतः दृष्टान्त के रूप में कहा जा सकता है कि जैसे जल प्यास शान्त करता है, वैसे ही निर्वाण तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती। आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है । वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मक इसीलिए कहा जाता है कि अनिवर्चनीय का निर्णचन करने में भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक युक्तिपूर्ण होती है। निर्वाण की अनिर्वचनीयता __ इस सम्बन्ध में निम्न बुद्ध-वचन उपलब्ध हैं-"भिक्षुओ ! न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूँ, न स्थिति और न च्युति कहता है, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है, न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है, यही दुःखों का अन्त है । भिक्षुओ! अनन्त का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं, जिस ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं हैं।" उदान में निर्वाण के सम्बन्ध में कहा गया है कि "जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु वहाँ नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं । वहाँ चन्द्रमा की प्रभा भी नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणास्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है ।"६ उदान का यह वचन १. विसुद्धिमग्ग, १६।६४ ४. यहाँ पाठान्तर है २. उद्धृत-बौद्धधर्म-दर्शन, पृ० २९४ ३. उदान, ८०१ ५. उदान, ८।३ ६. वही, १११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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